"मचान" ख्वाबो और खयालों का ठौर ठिकाना..................© सर्वाधिकार सुरक्षित 2010-2013....कुमार संतोष

सोमवार, 2 अगस्त 2010

रेल यात्रा


हाल हीं की बात है (27 अप्रैल 1996), वो तारीख़ मेरे पैन्ट की जेब मे सुरक्षित पडी है। मैं हैद्राबाद से दिल्ली लौट रहा था।
जाते समय पिताजी ने किसी तरह धक्कम-धक्का कर के स्थान दिला दिया था, पर आते समय मेरी मदत को कोई आगे नहीं बढा। परेशानी ये थी कि जल्दबाज़ी में निज़ामूद्दीन एक्सपेस की टिकट मिली। किसी तरह से हम सवार हो हीं गये, सीट भी मिल गई थी, पर बाल-गोपालों ने उस पर भी कब्ज़ा कर लिया। पहले नाशता मिला फिर रात्रि भोजन के लिऐ पूछा गया कि हम शाकाहारी हैं अथवा मांसाहारी। खातीरदारी मे कुछ कमी नहीं थी, ये बात और थी कि रोटीयाँ थोडी जली और दाल में थोडा नमक अधिक था।
सूरज डूब चुका था, रात्रि का आगमन बडे जोरों से था। ज्यों-ज्यों रात जवान होती जा रही थी नर-नारी, बाल-बालाऐं, व्रद्ध-युवक अपने-अपने मुद्राओं में संकलित हो चुके थे, इन मुद्राओं को देख अजंता-एलोरा की मुद्रित मुर्तीयो का स्मरण हो उठता था। कोई तिरछी मुद्रा मे तो कोई द्रविण प्राणायाम कोइ पद्धमासन की मुद्रा मे था,तो कोई उलट पुलट आसन कर रहा था। हम पर निंद्रादेवी क्रपा नहीं कर रहीं थी। धन्यवाद है विभिन्न प्रकार के रागबद्ध खर्राटे लेने वालो तथा वालीयों का जो निःशुल्क मनोरंजन प्रदान कर रहे थे। किसी कोने से शेर के गुर्राहट की आवाज़ आ रही थी तो कहीं गुंजित भ्रमरों की। कोई राग मलहार मे व्यस्त था तो कोई राग व्रष्टि गर्जन छेड रहा था। संगीत प्रेमियों के लिऐ मनोहारी द्रष्य था। मैं भी अपने शरीर को तोडता हूँ, मोडता हूँ कल्पना करता हूँ कि मैं अपने खाट पर हीं सो रहा हूँ- किन्तु निंद्रादेवी तो अप्रसन्न हीं रही। पैर समान के बोझ सहने का अब तक आदी हो चुका था। बाथरुम जाने के लिऐ उठा तो देखा कि ऐक खाते पीते घर की महिला जो भगवान की क्रपा से शरीर से भी तनदुरुस्त थी नीचे रास्ते पर निशिचन्तता से गहरी नींद का आनन्द ले रही थी। उसके वजन का आभाष उसके शरीर को देख कर हीं हो पडता था। पिछे देखा तो बाल गोपाल की भीड फर्श पर ठाट से सो रही थी।

"अवश्यकता हीं अविष्कार की जननी है"
लोगों को किनारे से आता जाता देख मैने भी साहस कर ही लिया। इस भरी मगरमच्छो के तलाब को पार करता कि ऐक महाशय का समान मेरे उपर आ गिरा और मुझ पर से उस सोई हुई महिला पर। मुझे तो ख़ास चोट नही लगी पर नींद का आनन्द लेती सम्भ्रान्त महिला का सर घूम गया। उसने आव देखा न ताव लगी चिल्लाने
"मार डाला रे सर फोड दिया कम्बख्त ने"
इक्कठी फौज देख मेरे तो रोंगटे खडे हो गये, भला क्यों न होते उस महिला के रिस्तेदार कोई दारा सिंह तो कोई यूकोजुना तो कोई महाबली ख़ली था और मैं अकेला असहाय। किसी तरह से मामला रफा दफा होने पर जान में जान आई। ऍसा लगा जैसे मैने कोई किला फतह कर लिया हो। मै अपनी जगह पर जा बैठा और कुछ देर के बाद सूर्य देव प्रकट होते है। सूर्य किरण झरोख़े से प्रवेश करती हैं। सब लोग अपने सहज रुप मैं विराजमान हैं, चाय और इडली की स्वरांजली स्पष्ट सुनाई पडती है, बार-बार लगातार।

8 टिप्‍पणियां:

  1. इंटरनेट की दुनियाँ में आपका स्वागत है।

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  2. सही है सफरनामा...

    एक निवेदन:

    कृपया वर्ड-वेरिफिकेशन हटा लीजिये
    वर्ड वेरीफिकेशन हटाने के लिए:
    डैशबोर्ड>सेटिंग्स>कमेन्टस>Show word verification for comments?>
    इसमें ’नो’ का विकल्प चुन लें..बस हो गया..जितना सरल है इसे हटाना, उतना ही मुश्किल-इसे भरना!! यकीन मानिये.

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  3. बढ़िया लिखा जनाब मान गए, मुस्किल से सफ़र को चुटकुले की तरह बता दिया.
    ये तो समझ में आ गया कि आप दिल्ली से चढ़े थे पर अंतिम पड़ाव क्या था ये तो बताइए

    visit my technical blog

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  4. ha ha ha
    बड़ा ही मजेदार संस्मरण हो गया ये तो.

    जवाब देंहटाएं
  5. ब्‍लागजगत पर आपका स्‍वागत है ।

    किसी भी तरह की तकनीकिक जानकारी के लिये अंतरजाल ब्‍लाग के स्‍वामी अंकुर जी, हिन्‍दी टेक ब्‍लाग के मालिक नवीन जी और ई गुरू राजीव जी से संपर्क करें ।

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    धन्‍यवाद

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  6. saphar ka mja lena ho to aapki tarah. lekh pad kar lga me bhi safar kar rhi hu. bhut achcha likha aapne.
    shashi parganiha

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