
6 सितम्बर 1995
आज दूर से खङे होकर लहरों को गीनने कि कोशिश करता रहा।कई छोटी बङी बूंदे चहरे तक पहूंची हीं थी कि अचानक समय के ख्याल से चौंक पङा। घङी की लगातार घूमती सुई शाम के पाँच बजने का ईशारा कर रही थी। एक अजीब सी हलचल सीने में उठने लगी, समुन्दर के सारी लहरों को मैं अपने अंदर महशूस कर रहा था । लहरों का संगीत मीठा होते हुऐ भी शोर सा प्रतीत हो रहा था। अचानक एक अवाज ने धङकन को और तेज कर दिया, पल भर कि घबराहट एक अजीब से नशे का अनूभव करा रही थी।
"कब से इन्तजार कर रहे हो।"
ये शब्द जैसे मेरे कानो में पारे कि तरह पिघलते चले गये, मैंने बहुत कोशिश कि, की मैं अपने अंदर चल रहे भाव को चहरे पर न आने दूँ पर जैसे हि मैं उसकी तरफ मुडा मेरी धङकने बहुत तेज चलती ट्रेन कि तरह भागने लगी। जैसे तैसे अपने भीतर चल रहे कशमकश को नियंत्रित कर के मैने ज़वाब दिया...
"बस अभी थोङी देर हिं हुआ है"
लाख़ कोशिशो के बाद भी मेरे भीतर चल रही कशमकश को उसने मेरे चहरे पर पढ लीया
"सौरी तुम्हे इन्तजार करना पङा"
"चलो चल कर कहीं बैठते हैं"
हम थोडी दूर में रखी बेंच पर जा कर बैठ गये। अभी ख़ामोशी के कुछ पल हि बीते थे की उसने मुझसे सवाल किया
"कहीं चाय पीने चलें"
"हाँ क्यों नही चलो" मैने कहा..
अभी मैं पूरी तरह खङा भी नही हुआ था की उसका फोन बज उठा। वो फोन पर बात करने लगी और मैं उसे तब तक टकटकी लगाऐ देखता रहा जब तक उसने फोन नही रख दिया, और फोन के रखते हीं उसने कहा..
" देखो तुम बुरा मत मानना मुझे किसी ज़रुरी काम से जाना है, हम कल साथ में जरुर चाय के लीये जाऐंगे"
और वह ये कह कर चली गई । मैं उसे दूर तक जाता हुआ तब तक देखता रहा जब तक वो आँखो से ओझल नही हो गई। मैं फिर से लहरों को गीनने कि कोशिश करता रहा, और मन हि मन आने वाले कल कि तस्वीर उन उठती गिरती लहरों में बनाता रहा।