"मचान" ख्वाबो और खयालों का ठौर ठिकाना..................© सर्वाधिकार सुरक्षित 2010-2013....कुमार संतोष

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

अधुरा मिलन


6 सितम्बर 1995
आज दूर से खङे होकर लहरों को गीनने कि कोशिश करता रहा।
कई छोटी बङी बूंदे चहरे तक पहूंची हीं थी कि अचानक समय के ख्याल से चौंक पङा। घङी की लगातार घूमती सुई शाम के पाँच बजने का ईशारा कर रही थी। एक अजीब सी हलचल सीने में उठने लगी, समुन्दर के सारी लहरों को मैं अपने अंदर महशूस कर रहा था । लहरों का संगीत मीठा होते हुऐ भी शोर सा प्रतीत हो रहा था। अचानक एक अवाज ने धङकन को और तेज कर दिया, पल भर कि घबराहट एक अजीब से नशे का अनूभव करा रही थी।

"कब से इन्तजार कर रहे हो।"

ये शब्द जैसे मेरे कानो में पारे कि तरह पिघलते चले गये, मैंने बहुत कोशिश कि, की मैं अपने अंदर चल रहे भाव को चहरे पर न आने दूँ पर जैसे हि मैं उसकी तरफ मुडा मेरी धङकने बहुत तेज चलती ट्रेन कि तरह भागने लगी। जैसे तैसे अपने भीतर चल रहे कशमकश को नियंत्रित कर के मैने ज़वाब दिया...

"बस अभी थोङी देर हिं हुआ है"

लाख़ कोशिशो के बाद भी मेरे भीतर चल रही कशमकश को उसने मेरे चहरे पर पढ लीया

"सौरी तुम्हे इन्तजार करना पङा"
"चलो चल कर कहीं बैठते हैं"

हम थोडी दूर में रखी बेंच पर जा कर बैठ गये। अभी ख़ामोशी के कुछ पल हि बीते थे की उसने मुझसे सवाल किया

"कहीं चाय पीने चलें"
"हाँ क्यों नही चलो" मैने कहा..

अभी मैं पूरी तरह खङा भी नही हुआ था की उसका फोन बज उठा। वो फोन पर बात करने लगी और मैं उसे तब तक टकटकी लगाऐ देखता रहा जब तक उसने फोन नही रख दिया, और फोन के रखते हीं उसने कहा..

" देखो तुम बुरा मत मानना मुझे किसी ज़रुरी काम से जाना है, हम कल साथ में जरुर चाय के लीये जाऐंगे"

और वह ये कह कर चली गई । मैं उसे दूर तक जाता हुआ तब तक देखता रहा जब तक वो आँखो से ओझल नही हो गई। मैं फिर से लहरों को गीनने कि कोशिश करता रहा, और मन हि मन आने वाले कल कि तस्वीर उन उठती गिरती लहरों में बनाता रहा।


नया सवेरा



दूर कहीं है आश तुम्हें पाने कि
राह में भटकता फिर रहा अनजाने पथ पर
आशाओं के दीप जलाऐ
नतमस्तक है नया सवेरा
फूलों से मन अनुरंजित हो कर
ढूंढे वन वन चाह तुम्हारी
महक उठेगा सारा आलम
जब तुम होगे पास हमारे
नहीं सूझती राह पथिक को
अपने मन के राही हम हैं
मुङेगी जिधर पथ उस पर
चल देंगे हम आँखे मूंदे
और कभी जो खिले दिवाकर
किरणो से अपना दामन भर दे
और घटा सुधा बरसाऐ
नीले नीले अम्बर में फिर
त्रप्त भाव से तारें गायें

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

दिवाली


मुझे याद है जब मै छोटा था। दिवाली का पूरा साल इन्तजा्र रहता था। दिवाली में जब बम पटाखे फोडते थे तो कइ पटाखे फुस्स हो जाते थे, मगर बचपन मन कब मानता है, उस फुस्स बम को उठाकर फिर से एक बार फोडने कि कोशिश करते,इसी कोशिश मे एक बार एक बम के अन्दर का कंकड मेरे पैर मे लग गया, एक बार तो चीख निकल गइ,फिर अगले हीं पल खुद के मनोभाव को नियंत्रीत किया की कोई हमारा मजा्क ना उडाऐ।
बस इसी भाव ने इस हास्य कविता को जन्म दिया।





हम समझ चुके थे की हमारा वक्त जल्द हीं बदलने वाला है।
जिसे हमने दिवाली समझी वो दिवाली नही दिवाला है।
हुआ ये कि हमारे पैर में चोट लग गई,
किसी बद्ददुआरी के दिल कि खोट लग गई।
कहीं से बम का पत्थर उडता हूआ आया,
हमारे दायें पैर कि कानी अंगुली से जा टकराया।
बस फिर क्या पाँच मिनट में अंगुली नीली हो गई,
दर्द से हमारी चड्डी गीली हो गई।
कुछ लोग हँस कर मेरा मजा्क उङाते थे।
हम भी उनके साथ हँस कर झेप जाते थे।
खैर चोट लग ही गया था तो क्या करते,
घर पहुँचे गिरते पडते।
अब हम समझ चुके थे की फुस्स हुऐ बम फोडने का परिणाम क्या होता है।
असावधानी से दिवाली मनाने का अंजाम क्या होता है।
उपर से तो मुस्कुरा रहे थे, अन्दर हीं अन्दर बहुत पीडा हो रही थी।
ओर ना जाने लक्ष्मी माता किसके घर में सो रही थीं,
लक्ष्मी जी आती तो उनके पैर पकड लेते।
लाकर दो हाँथ कि रस्सी उन्हें बन्धन में जकड लेते।
माँगते वरदान,
की हे लक्ष्मी माँ करो कल्याण।
हमें ऐसा बम दो,
जिसकी कीमत कम हो।
कीमत कम होगी तो अधिक बम खरीद पाऐंगे,
फुस्स हुऐ बम फिर कभी नहीं जलाऐंगे,
फिर हम नहीं तुमसे कुछ फरीयाद करेंगे,
उसके बाद हीं तुम्हें बन्धन से आजाद करेंगे।
जब हमारा घर धन से भर जाऐगा,
पडोस का लाला जल भून कर मर जाऐगा।

उदासी



एक कोने में बैठा सिसकता अचेतन सा पडा
गाल पर आंसू की बूंदे
अभी सूखी भी नही
आँखो में स्तब्धता
चेहरे पर उदासी
बिखरे बाल, और मन में कुछ सवाल
अपलक टकटकी लगाये
शुन्य निहारता निरन्तर।।

आँसु


बहाना केवल एक नही था।
आँसू था वो मेघ नही था।
गिरती रुकती नमक की बनी।
गालो पर आसार छोड्ती ।
अविराम बहती रहती वह।
करुण वेदना कहती रहती वह।
गिरे कभी जब मोती बनकर ।
फिर तकीया उसको अपनाता।
अंक में भरकर प्यार से उसको सहलाता।
दिखलाता फिर स्वपन सुहाने।
गीत सुनाता कमनीय कंठ से कुछ जाने पहचाने।

लम्हा


एक बार इक लम्हा गिरा था टूट कर।
मैने उसे लाख पकडने की कोशिश की,
वो लम्हा मूट्ठी में बंद सूखी रेत की तरह था।
जितनी जोर से मैं पकडता,
लम्हा उतनी तेजी से फिसलता।
लाख जतन के बाद भी मेरा हाथ खाली था।
कुछ आङी तिरक्षी लकीरें थी,
उन लकीरों के साथ लिखी थी मेरी नाकामी।
लम्हा जा चुका था।
सभी मेरी हालत से वाकिफ् हो चुके थे।
कुछ मेरे पीठ पीछे हँसते थे, मुस्कुराते थे,
कुछ मेरे सामने मेरी बेबसी का मजा्क उडा्ते थे।
मैं खामोश खडा् झेलता था।
मुझे तो झेलना हीं था।

बुधवार, 28 जुलाई 2010

कहानी



मेरे टूटे हूऐ दिल की इतनी सी कहानी है,
होंठो पर सिकवा है आंखो में पानी है।

इस दौर मैं न जाने क्यो लोग परेशां हैं,
क्यो समझे ना वो दिवाने थोडी सी जिन्दगानी है।

हमने जिधर भी देखा एक खौफ का मंजर है,
सब लोग हैं चूप फिर भी हम सब को हैरानी है।

किसके लिए यहाँ पर अब कौन है जो रोता है,
आँखो मे अब सभी के वो खून-ऐ-जवानी है।

पहचाने से अब चेहरे अनजाने से लगते है,
ये भीड् से अब मुझको ये कैसी परेशानी है।

मेरे देश का अब ये क्या हाल हो गया है,
चुटकि भर खाना है मुट्ठी भर पानी है।

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