एक बार इक लम्हा गिरा था टूट कर।
मैने उसे लाख पकडने की कोशिश की,
वो लम्हा मूट्ठी में बंद सूखी रेत की तरह था।
जितनी जोर से मैं पकडता,
लम्हा उतनी तेजी से फिसलता।
लाख जतन के बाद भी मेरा हाथ खाली था।
कुछ आङी तिरक्षी लकीरें थी,
उन लकीरों के साथ लिखी थी मेरी नाकामी।
लम्हा जा चुका था।
सभी मेरी हालत से वाकिफ् हो चुके थे।
कुछ मेरे पीठ पीछे हँसते थे, मुस्कुराते थे,
कुछ मेरे सामने मेरी बेबसी का मजा्क उडा्ते थे।
मैं खामोश खडा् झेलता था।
मुझे तो झेलना हीं था।
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