"मचान" ख्वाबो और खयालों का ठौर ठिकाना..................© सर्वाधिकार सुरक्षित 2010-2013....कुमार संतोष

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

ख़त को ख़त ही रहने दो

ख्वाबों को देखता हूँ
सीढियों से उतरते
गुज़रते
दबे पाँव
नज़रें चुराते
गलियारों से
और उधर
तुम्हारे तकिये कि नीचे
वो लम्हा
चुराकर रखा
है अब तक
और लिफाफे में
इश्क के
हज़ारों जगरातें 
जुगनू तितली बादल मंजर
छोड़ो ख्वाबों कि बातें
तुम कहो
जूही के पौधे पर
फूल आ गए होंगे अब तो
क्या कहा
कैसे जाना
तुम्हारे ख़त में
खुशबू आती है उसकी
और हाँ
अगर हो सके
ख़त को ख़त ही रहने दो
ई मेल मत बनाओ
बेजान सी लगती हैं
बातें  

रविवार, 26 सितंबर 2010

कुछ पल तो तुम्हारे साथ रहूँ

तुम कहती हो तो
कह देता हूँ
लोगों का क्या
वो तो कविता ही समझेंगे

जब से तुम
गई हो
गमलो में 
पौधे हँसना भूल गए हैं
बरामदे में
धूप कि किरने
आती तो हैं, मगर
रौशनी कहीं घुल गई है

परिंदे भी छत पर
कम हो गए
उन्हें भी तो आदत थी
तुम्हारे हाँथो के बाजरे की
शाम को अक्सर अब
जल्दी घर लौटता हूँ
और दरवाजे पर ठिठक जाता हूँ
शायद मेरे कदमो की
आह्ट सुनकर तुम फिर से दरवाजा खोलो  

हूँ न बेवकूफ
सब जानता हूँ
फिर भी सपने बुनता हूँ
सपने में आज
तुम्हे देखा
जान भूझ कर रूठ गया था तुमसे
तुम मनाती हो
तो अच्छा लगता है
आँखे खुल गई
तो जबरदस्ती आँखे मूँद ली
सपनो में ही सही
कुछ पल तो तुम्हारे साथ रहूँ

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

आओ मिलकर फुटबाल खेलें

आओ  मिलकर  फुटबाल  खेलें
जय  बम  भोले  जय बम भोले
भांग     धतुरा   पी    के  साधो
इधर  उधर   कि   टीम में होलें
हम  सब  करें  गोल   पर  गोल
जय  रघुनन्दन जय सिया बोल
पंडित   ढोंगी   राम  सुनो   जी 
तुम  बस बजाओ  ढोल पे ढोल
बांकी   सब   खेलें      फुटबाल 
नरक  स्वर्ग  सब  बाद में होगी
हम  भी  जोगी  तुम  भी जोगी
फुटबाल  खेलें  बन  कर  भोगी
खेल   खेलते   जोर   से   बोलें
आओ  मिलकर फुटबाल  खेलें
जय बम भोले  जय  बम भोले 

संता की परेशानी

संता कुछ परेशान सा घूम रहा था
अपने मन में जाने क्या सवाल बुन रहा था
पुरे घर में भटक रहा था
एक सवाल जो उसकी खोपड़ी में अटक रहा था
कि सारे चुटकुले संता पर ही क्यों बनते हैं
अरे दुनीयाँ में और भी तो लोग हैं
क्या हमी सिर्फ चुटकुले के योग्य हैं
हर चुटकुले हर बात में हमें ही घुसेड दिया जाता है
किसी की बेईजती करनी हो तो हमें ही भेड़ दिया जाता है
तभी संता की पत्नी मटकते हुए आई
मुस्कुराई फिर जोर से चिल्लाई
मैं तो तुमसे भर पाई
सुबह से एक भी काम नहीं किया
तुमने मुझे कौन सा सुख दिया 
महीने हो गए मायके गए
कम से कम मायके ही घुमा लाते
मुन्ने ने बिस्तर पर पोट्टी की
पोट्टी वहीँ छोड़ दी
कम से कम मुन्ने को ही धुला लाते
पडोसी से सीखो
हर महीने अपनी बीवी को नए जेवर दिलाता है
देर रात तक बीवी के पैर दवाता है
सुबह से देख रही हूँ इधर से उधर मचल रहे हो
आखिर ऐसी कौन सी ग़ज़ल लिख रहे हो
संता बोला अरी बंतो मैं अपने ही सवाल से परेशान हूँ
तू अपना ही राग गा रही है
मदत करती हो तो बता वरना क्यों मेरा दिमाग खा रही है
हर बात हर चुटकुले में मैं दाखिल हूँ कहीं न कहीं
कोई ऐसी बात बता जिसमे मैं शामिल नहीं
बंतो बोली अजी वैसे तो हार बात आपसे होकर गुजरने वाली है
मगर एक बात जिसमे आप शामिल नहीं हो वो ये है जो बताने वाली है
हौसला रखना मैं बिलकुल सच कहने वाली हूँ
में एक और बच्चे की माँ बनने वाली हूँ

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

ओस

हवाओं से टकराती
पत्तो पर लिपटती
फिसल कर मिट जाती है
जो कोई
स्पर्श करे
नर्म हाथों से
तो खुद में ही सिमट जाती है
तो कभी
खेतो में
धान कि बालियों पर
अटखेलियाँ करती
मंद हवाओं से
झूलती
घूंघट में पड़ी
दुल्हन सी खामोश
तो कभी
किसी महबूब के हांथो पर
माशूक की
चहल कदमी का
एहसास दिलाती हुई मदहोश
रूप का सागर
समेटे
आने वाली सुबह का
इंतज़ार करती है
कभी धूप में
कभी छाओं में
कभी बहारों की
फिजाओं में
आने वाले मुसाफिर की
राह तकती है
ओस
हाँ वही ओस
जो केवल अपने लिए नहीं
बल्कि औरों की
ख़ुशी के लिए मिटती
और फिर अगली सुबह
जीवित होती है 

बुधवार, 22 सितंबर 2010

बिजली कहाँ से आती है ?


स्कूल में मास्टर जी बच्चो का ज्ञान बढ़ा रहे थे
साईंस के टीचर थे सो विज्ञान पढ़ा रहे थे
ब्लैक बोर्ड पर सवाल लिखा, कि बिजली कहाँ से आती है ?
फिर अपनी पैनी निगाहों को चारो ओर घुमाया 
और सोंच विचार कर रामू को खड़ा करवाया 
बोले रामू तुम्हारी अकल्बंदी मुझे सबसे ज्यादा सताती है
तुम ही बताओ आखिर बिजली कहाँ से आती है ?
रामू खड़ा हो गया डर से 
बोला मास्टर जी मामा के घर से
मास्टर जी बोले वो कैसे 
रामू ने जवाब समझाते हुए मास्टर जी को फिर से मात दी 
बोला बिजली जाती है तो पापा कहते हैं कि सालों ने फिर से काट दी ! 

कॉमनवेल्थ नहीं कम ऑन वेल्थ

कॉमनवेल्थ नहीं कम ऑन वेल्थ

कॉमनवेल्थ खेल के नाम पर जिसे मौका मिल रहा है अपनी जेब भरने में लगा है ! फ्लाईओवर, ब्रिज, जल्दबाजी में धड़ल्ले से बनाये जा रहे है, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि इन सस्ते काम का खामियाजा आम जानता को भरना पड़ता है ! नेहरु स्टेडियम का ब्रिज अभी बनके तैयार भी नहीं हुआ कि उससे पहले टूट कर गिर गया और हमारे नेता है कि कह रहे हैं कि ये छोटे मोटे हादसे होते रहते हैं ! ये कैसा कॉमनवेल्थ गेम है ! ये तो कॉमनवेल्थ कम और कम ऑन वेल्थ (come on wealth)जयादा लग रहा है !!
 
कॉमन  वेल्थ   के  नाम पर, देश  को  रहे लूट
नेता  जी  घपला   करें ,  पहन   कर  सूट  बूट
पहन  कर  सूट बूट  करोडो  का  चुना लगाया 
खाए  रूपए  करोड़,  हज़ार का  पुल बनवाया
लूट  खसोट  कर  जानता  से  है खूब कमाया
फ्लाईओवर  का  ठेका  साले   को  दिलवाया  
कॉमनवेल्थ  का  मतलब  नेता  जी समझाएँ  
कम ऑन वेल्थ है मतलब, खूब रूपईये खाएँ

रविवार, 19 सितंबर 2010

एक शाम उधार दे दो


एक शाम उधार दे दो 
कुछ पल
ख़ुशी के तो जी सकूं,
इस जहाँ में
मेरा भी कुछ अस्तित्व हो
इसके लिए मुझे
एक नाम चाहिए
तुम मुझे वो नाम उधार दे दो


अपने ही गर्दिश के
सितारों में उलझा
सोया सा
मुकद्दर मेरा
माहुर कि घूँट
जलाती जिस्म
ये सब भूलना चाहता हूँ
इसके लिए मुझे
एक जाम चाहिए
तुम मुझे वो जाम उधार दे दो


भूख का
वो हँसता हुआ चेहरा
दर्द कि
वो फटी हुई चादर
हलक से निकलती
वो चीख
ये सब मिटाना चाहता हूँ

जानता हूँ
ये काम मुश्किल है बहुत 

फिर भी
तुम मुझे वो काम उधार दे दो

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

कुछ न कुछ लेकर ही आना

बहुत सी जातक कथाएँ, लोक कथाएँ पढ़ी हैं, मगर उससे जयादा सुनी हैं ( बाबु जी से ) ! बाबु जी के पास जीवन की हर छोटी बड़ी घटनाओ को लेकर एक न एक कहानी जुबानी रहती है ! हर बात के पीछे " वो कहानी है ना " जोड़ देना उनके लिए सहज है ! आज शाम को ऑफिस से घर आया तो घरवालों के याद दिलाने पर याद आया कि मैं माँ की दवाई लाना भूल गया हूँ ! इससे पहले सभी दुकान बंद हो जाती मैं नुक्कड़ पर केमिस्ट की दुकान से दवाई ले आया ! रात को खाना खाते वक़्त बाबु जी ने कहा ..."आज तुम दवाई लाना भूल गए हो, और कभी भी अपनी मर्ज़ी से कुछ भी खरीद कर नहीं लाते हो घर मैं, कल से रोज़ कुछ न कुछ लाना होगा वरना घर के अंदर आने की मनाही होगी !"  मैंने कहा... " ये क्या बात हुई, कुछ न कुछ से क्या मतलब है ? "
बाबु जी बोले... " कुछ न कुछ से मतलब है कुछ भी जैसे फल, सब्जी, मिठाई, कपडे, लकड़ी, पत्थर,मिटटी  कुछ भी"
मैं मन ही मन हँसा मगर चेहरे पर गंभीरता बनी रही !  मैंने कहा...
" ये सब समझा मगर पत्थर, लकड़ी, इन सब चीजों का क्या फायदा, इन सब का क्या होगा ?"
मेरे मन में उठ रहे सवाल को ख़तम करने के लिए बाबु जी ने एक कहानी सुनानी शुरू की..




एक राज्य में गरीब ब्राह्मन अपनी धर्म पत्नी के साथ रहता था ! दूसरों के घर में पूजा अनुष्टान करने पर जो धन प्राप्त होता उससे उनका गुजर बसर हो जाता था ! कभी कभी दान में अनाज और फल भी मिल जाया करता था ! मगर कुछ दिनों से ब्राह्मण को न ही पूजा अनुष्टान के लिए कोई आमंत्रित करता और उसे कोई दान भी नहीं मिल रहा था ! ब्राह्मण शाम को रोज़ खाली हाँथ घर आने लगा ! एक दिन ब्राह्मण की पत्नी बोली आप रोज़ खाली हाँथ घर आ जाते हो इस तरह गुजर कैसे होगा, कल से आप रोज़ कुछ न कुछ लेकर ही आना मगर खाली हाँथ मत आना ! ब्राह्मण सोंचने लगा की आज कल कोई पूजा अनुष्टान तो करवा नहीं रहा, दान भी मुश्किल से कभी कभी मिलता है, अब ऐसे में रोज़ क्या लेकर आऊं, ! अगले दिन सुबह सुबह ही ब्राह्मण घर से निकल गया कि शायद आज कुछ धन का इंतजाम हो जायेगा मगर शाम तक ब्राह्मण ने न ही कुछ धन कमाए और न ही कहीं से कोई दान मिला ! वापस आते समय उसे अपनी पत्नी की बात याद आई कि उसने कहा है की कुछ न कुछ जरूर लाना है ! ब्राह्मण सोंचने लगा की अब घर क्या लेकर जाऊं ! जंगल से घर की तरफ जाते समय ब्राह्मण को ख्याल आया की क्यों न आज जंगल से लकड़ियाँ ही उठा लूं ! ब्राह्मण जंगल में से पेढ की टूटी लकड़ियाँ उठाने लगा और उन्हें जमा करके घर ले आया ! घर आकर पत्नी से कहा की तुमने कहा था कुछ न कुछ जरूर लाना तो आज मैं ये लकड़ियाँ लाया हूँ ! पत्नी ने उन लकड़ियों के गट्ठर को आँगन में रख दिया ! अगले दिन ब्राह्मण की पत्नी उन लकड़ियों के गट्ठर को बेच कर जो धन प्राप्त हुआ उससे अनाज खरीद लाइ ! कई दिनों तक यही सिलसिला चलता रहा, जब भी ब्राह्मण को किसी दिन धन या दान नहीं मिलता वो जंगल से लकड़ियाँ उठा लाता ! एक रोज़ ब्राह्मण को न ही धन मिला, न ही दान और न ही वन में गिरी हुई लकड़ियाँ ! ब्राह्मण ये सोंच कर बहुत दुखी हुआ की आज घर क्या लेकर जाऊंगा, आज तो वन मैं सूखी लकड़ियाँ भी नहीं है ! तभी जंगल में उसने एक मरा हुआ सांप देखा ! ब्राह्मण उसे उठाकर घर की तरफ चल दिया ये सोंचता हुआ की आज हो न हो उसकी पत्नी उस पर जरूर नाराज़ होगी ! घर पहुच कर उसने अपनी पत्नी से कहा की आज सिर्फ ये मरा हुआ सांप मिला है, इसे हीं लेकर आया हूँ ! ये सुनकर ब्राह्मण की पत्नी बोली कोई बात नहीं कुछ तो लेकर आये हो न, इसे बहार आँगन में रख दो ! अगले दिन सुबह ब्राह्मण धन कमाने के लिए रोज़ की तरह घर से निकल गया ! राजमहल में महारानी ने नित्य स्नान के लिए अपने आभूषण उतार कर जैसे ही रखे, एक चील कहीं से उड़ता हुआ आया और उन आभूषण में से बेश कीमती हार अपनी चोंच में दबाकर ले उड़ा ! उड़ता हुआ चील जब ब्राह्मण के घर के ऊपर से जा रहा था तो उसकी नज़र मरे हुए सांप पर पड़ी ! चील अपना भोजन देख नीचे उतरा और उस हार को वहीँ छोड़ मरे हुए सांप को अपनी चोंच में दबा कर ले उड़ा ! उधर महारानी का हार खो जाने पर राजा ने हर और मुनादी करवा दी कि जो भी कोई महारानी का हार ढूँढ कर लायेगा उसे उच्च पुरूस्कार से सम्मानित किया जायेगा ! ये खबर सुनकर ब्राह्मण अपनी पत्नी के साथ गया और उसने वो हार राजा को सौप दिया ! राजा ने ब्राह्मण को धन से पुरुस्कृत किया और उसकी इमानदारी को देख कर अपनी राज्य का राज पुरोहित बना दिया !

मैं बाबु जी से कहानी सुनकर बहुत खुश हुआ ! जिस भी कहानी का अंत सुखद हो मन को बहुत ख़ुशी मिलती है ! फिर भी मैंने मन ही मन सोंचा की अब वो जमाना है कहाँ, जब सच्चाई और इमानदारी पर पुरस्कार मिलते थे ! आज कोई इसकी सराहना ही कर दे वही बहुत होता है ! मगर सच और इमानदारी के राह पर चलने वालों को इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि कोई उसकी इमानदारी या सच्चाई कि कद्र करता है या नहीं, वो तो बस सच्चाई और इमानदारी को ही अपना जीवन मान कर चलते रहते हैं !

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

मील का पत्थर

मैं
एक मील का पत्थर
हर लम्हा
किसी मुसाफिर के आने का इंतज़ार है
हर मुसाफिर
जिसके चेहरे पर
जिंदगी के धूप का
पसीना है
माथे पर शिकन है


पल भर
आशा की
कटु नज़रों से
देखता मेरी तरफ
उसे उसकी मंजिल की दूरी का
एहसास
दुखी करता है


पर मैं क्या करूं
मैं
अनजाने चाह की तहतो में लिपटा
एक बेबस पत्थर
जो उसे उसकी मंजिल की

दूरी की झलक दिखाता हूँ
घूरते हैं मुझे
और निकल जाते हैं  

बुधवार, 15 सितंबर 2010

छक्के पे छक्का

लाली लगा होंटों पे,   करके   सुनहरे   बाल
सफ़ेद साड़ी पहिनकर,  बिंदी  लगाईं  लाल
बिंदी लगाईं लाल, पिया ज़रा   देखो हमको
इस गेटप को पहनकर कैसी लगती तुमको
हम बोले श्री मति जी तुम लग रही हो ऐसे
एम्बुलेंस चला आ रहा  हास्पिटल का जैसे






प्यार व्यार सब छोड़ कर, करो कविता पाठ
कविता से गुण बढ़त हैं, खड़ी प्यार की खाट
खड़ी प्यार की खाट  सुन लो मिस्टर भल्ला
पकडे  गए  तो  हो  जाओ बदनाम मोहल्ला
कविता की  मस्ती  में  सबकुछ पा जाओगे
खा कर प्यार में धोका एक दिन पछताओगे

सोमवार, 13 सितंबर 2010

चाँद तुम्हारे छत पर उतरा था

कल रात
मैंने खिड़की से देखा
चाँद तुम्हारे छत पर उतरा था
कुछ तो बातें कि होगी तुमसे
यूँ ही नहीं वो गया होगा 

उस वक़्त
जब तूम विदा करने आई थी
चाँद को
गलियारे में
मैंने पहचाना नहीं
दोनों में से तुम कौन हो

और आज सुबह
जब तुम मंदिर में खड़ी थी
आँखे मूंदे
मैंने चुपचाप देखा था तुम्हे
सीढियों से
तुम्हारी बिंदिया
अरे
वो चाँद याद आ गया फिर से मुझे

आज अमावस है
जानता हूँ
आसमान में नहीं निकलेगा चाँद आज
मगर तुम छत पर जरूर आओगी
मुझे क्या
मुझे तो अपने चाँद से मतलब है  

रविवार, 12 सितंबर 2010

ख्वाब

तुम एक
ख्वाब हो
जिसे देखना
मेरी आदत है
खुली पलकों से
हर घडी
हर पल
हर क्षण
व्याकुल मन
तुम्हारे आने कि
प्रतीक्षा मैं
अपलक
देखता उन राहों को
जिसपर तुमने कभी
पैर भी न धरे
फिर भी इस आस पर
कि यह ख्वाब
आशाओं कि गलियों से होकर
तुम्हारे पलकों के
आँगन तक पहुचे
तो शायद
मेरी प्रतीक्षा में
न्यूनता आये !!

सोमवार, 6 सितंबर 2010

तलाश एक बार फिर


वक़्त गुजरा
सदियाँ बीती
एक उम्र बसर हुई
आज न जाने क्यों
यादों की बंद खिड़की को खोल
उन झरोखों से झाकने का दिल हुआ
जिन्हें लम्हों के जाले ने धुंधला कर दिया
आँखों का खुद पर से भरोसा उठ गया
खिड़की के उस पार का 
वो पल
अब भी वहीँ थमा हुआ था,
जिस वक़्त मेंने खिड़की बंद की थी
वो फेरीवाला आज भी
खट्टी मीठी गोलियाँ की आवाज लगता
गली के नुक्कड़ पर
ओझल हो जाता है आँखों से
में बेतहाशा भागता हूँ
उसकी और
और दुसरे गली के नुक्कड़ पर
उसे पकड़ ही लेता हूँ
चेहरे पर ख़ुशी
पल भर के लिए आती है
और पल में ही काफूर हो जाती है
जब मेरी इकलौती अठन्नी
जेब में नहीं मिलती
इस भागा-दौड़ी में
इकलौती अठन्नी
जाने कहाँ खो गई
ढूँढता हूँ बेसब्र होकर
सिर्फ अठन्नी खोई होती तो
शायद
मिल भी जाती
किस्मत भी कहीं ग़ुम हो चुकी थी
मगर तब तलक ढूंढता रहा
जब तक
उजालों ने मेरा साथ न छोड़ दिया
मगर खिड़की के इस पार
आज यही हालात थे मेरे
जीवन की भागा- दौड़ी में
कुछ रिश्ते
जाने किन पड़ाव पर खो गए
क्या उस अठन्नी जितनी कीमत भी नहीं
इन रिस्तो की
तो क्या इन्हे यूँ ही खोने दूं
एक बार फिर
तलाश करनी है
उस अठन्नी की
इन रिस्तो की शक्ल में
किस्मत कभी तो मेरे साथ होगी हीं !!! 

रविवार, 5 सितंबर 2010

चंद लफ़्ज़ों में डूबी इश्क की दास्ताँ

चंद लफ़्ज़ों में डूबी इश्क की दास्ताँ 
लिखने बैठूं तो पूरी स्याही ख़त्म हो जाएगी 
वो उनके चेहरे पर मंद मंद सी मुस्कराहट 
समेटने बैठूं तो पूरी जिंदगी ख़तम हो जाएगी
एक रोज़ यों ही मुलाक़ात हो गई राह में
अजनबी थे मगर कुछ तो था दोनों के एहसास में
आते जाते अक्सर मुलाकाते होने लगी 
जान पहचान बढ़ी फिर बातें होने लगी
अब जब भी मिलते थे घंटो बात किया करते थे
एक दुसरे की आँखों में सपने पाला करते थे
न वक़्त के गुजरने का होश,
न ही दिन के ढलने का ख्याल 
दिल बस यही सोंचता 
की कब रात ढले और कब उनका दीदार हो
कब उनके लब खुलें
कब बारिश मुसलाधार हो
दोनों की नजदीकियाँ बढ़ने लगी
दोनों का खुमार बढ़ने लगा 
कुछ पता नहीं चला कब दोनों में प्यार बढ़ने लगा 
न ही भूख लगने की फ़िक्र 
न ही किसी काम का होश 
चंद मिनटों के लिए कुछ कहते
फिर घंटो तक खामोश 
दिन जैसे बड़ी तेजी से पंख लगा उड़ता जा रहा था
और वो बस एक दुसरे की आँखों में अपना सपना सजाने लगे थे
खयालो में जीना, सपने सजाना
तस्सवूर में खोना, वो रूठना मानना 
अल्ल्हड़ वो मस्ती, वो शोख जवानी
नदी का किनारा, वो झरने का पानी
न कुछ थी खबर, न होश कहीं था
बस वो थे वही थे कोई और नहीं था 
मगर जाने कहाँ से वो आंधी थी आई 
कुछ ग़लतफहमी झोंको ने सपने बिखेरे 
भरोसा था उनका वो टुटा वहीँ पर 
जिंदगी के शुरू फिर वो गहरे अँधेरे
आज फिर से उनकी जिंदगी में एक सूनापन है 
आज फिर उनकी तनहाइयों में वीरानापन है
वो बेबस हैं बैठे, और सोंचते ये रहते 
क्या ? प्यार था उनका
जो ग़लतफहमी से टूटा 
क्या ? भरोसा था उनका
ये बंधन जो छूटा
जाने अनजाने अपने ही मैं में
उन हसीं लम्हों को 
पनपने से पहले ही दफना दिया उन्होंने !!

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

एक सूरत है

जिंदगी मेरी लाख खूबसूरत ही सही
एक सूरत है
जो सबसे हट कर है
हर सूरत में
एक सच्चाई है
कुछ हकीकत है
एक फ़साना है
दूसरी तरफ ज़माना है
एक विश्वास है
कुछ सपने हैं
निरंकुश अभिलाषाएं हैं
आशाएं हैं
दो जिंदगी है
एक धुप है, एक बादल है
एक आंधी है, एक आँचल है 
एक गुंजन है, एक तन्हाई है
वो आलस है, ये अंगडाई है
एक दर्द है, एक मरहम है
एक दुसमन है, एक हमदम है
कुछ पल है, एक साथ हैं
कुछ दूर तक यही हालात हैं
बिखरते जज्बातों के साथ
जुदा अंदाज़ है
कुछ जरूरी है, कुछ जरूरत है
सबसे हट के एक सूरत है
हर सूरत में

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

वो तो हर एक बात पर ग़ज़ल लिखता है

वो  तो  हर  एक  बात  पर  ग़ज़ल  लिखता  है
नादाँ  है  जो    दरबे  को    महल   लिखता   है


लिखने को तो लिख दूंगा दास्तान-ऐ-मोहब्बत
मगर कौन है जो सच्चाई आज कल लिखता है


करता  अगर  वो  बातें  सागर  के   किनारे  की
कुँओं  की   ख़ामोशी  भी को हलचल लिखता है


होते  हैं  कुछ  दीवाने   दुनीयाँ मैं   इनके   जैसे
महबूब   को   वो   अपने  ताजमहल लिखता है


चुभ  जाते  हैं  पैरों  में  जब   कांटे  गुलिस्ताँ के
वो  दीवाना  है  कांटो  को  जो कमल लिखता है


वो वक़्त हुआ काफूर खुशियों का जब चलन था
अब  आंसूओं  के  किस्से  हर  पल  लिखता   है


सारे जहाँ  की  रौनक  बस्ती  थी  उसके  घर  में
वो   बटवारे   हुए   घर   को   जंगल   लिखता है

मित्र जो ढूंडन मैं चला

मित्र  जो  ढूंडन  मैं  चला  ढूँढा सकल जहाँन
फेसबुक किया सर्च तो मिल गए कल्लू राम
मिल गए  कल्लू राम स्क्रैप हमने कर डाला
यहाँ   छुपे  बैठे  हो  कर   के  तुम   घोटाला
लूटा   हमसे    जितने  रूपए  हमें   लौटाओ
नहीं    करोगे   ऐसा  कसम  हमारी   खाओ
इंटरपोल    पड़ी   पीछे    तो   होंगे   फड्डे
कपडे  लत्ते    संग   बिकेंगे    तुम्हारे चड्डे

बुधवार, 1 सितंबर 2010

मैं तेरी मोहब्बत का इलज़ाम लिए फिरता हूँ

मैं  तेरी  मोहब्बत  का  इलज़ाम  लिए  फिरता हूँ
जिस शहर से भी गुजरूँ तेरा नाम लिए फिरता हूँ


तेरा  जाना  मेरे  दिल   को  हर  लम्हा  रुलाता है
अश्क छुपाने की कोशिस नाकाम लिए फिरता हूँ  
            
दरबे  पर  मुझसे  मिलने  तेरा  नंगे  पाँव  आना 
अब तक एहसासों की मैं वो शाम लिए फिरता हूँ  


अच्छा है  भूल  जाऊं  किस्मत  मैं  जब नहीं तू
तुझको भूलने के खातिर मैं जाम लिए फिरता हूँ


जीना  भी  क्या है जीना बिन  तेरे भला मुझको 
मैं  अपने  न  होने  का  पैगाम  लिए  फिरता हूँ 
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