"मचान" ख्वाबो और खयालों का ठौर ठिकाना..................© सर्वाधिकार सुरक्षित 2010-2013....कुमार संतोष

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

दिवाली


मुझे याद है जब मै छोटा था। दिवाली का पूरा साल इन्तजा्र रहता था। दिवाली में जब बम पटाखे फोडते थे तो कइ पटाखे फुस्स हो जाते थे, मगर बचपन मन कब मानता है, उस फुस्स बम को उठाकर फिर से एक बार फोडने कि कोशिश करते,इसी कोशिश मे एक बार एक बम के अन्दर का कंकड मेरे पैर मे लग गया, एक बार तो चीख निकल गइ,फिर अगले हीं पल खुद के मनोभाव को नियंत्रीत किया की कोई हमारा मजा्क ना उडाऐ।
बस इसी भाव ने इस हास्य कविता को जन्म दिया।





हम समझ चुके थे की हमारा वक्त जल्द हीं बदलने वाला है।
जिसे हमने दिवाली समझी वो दिवाली नही दिवाला है।
हुआ ये कि हमारे पैर में चोट लग गई,
किसी बद्ददुआरी के दिल कि खोट लग गई।
कहीं से बम का पत्थर उडता हूआ आया,
हमारे दायें पैर कि कानी अंगुली से जा टकराया।
बस फिर क्या पाँच मिनट में अंगुली नीली हो गई,
दर्द से हमारी चड्डी गीली हो गई।
कुछ लोग हँस कर मेरा मजा्क उङाते थे।
हम भी उनके साथ हँस कर झेप जाते थे।
खैर चोट लग ही गया था तो क्या करते,
घर पहुँचे गिरते पडते।
अब हम समझ चुके थे की फुस्स हुऐ बम फोडने का परिणाम क्या होता है।
असावधानी से दिवाली मनाने का अंजाम क्या होता है।
उपर से तो मुस्कुरा रहे थे, अन्दर हीं अन्दर बहुत पीडा हो रही थी।
ओर ना जाने लक्ष्मी माता किसके घर में सो रही थीं,
लक्ष्मी जी आती तो उनके पैर पकड लेते।
लाकर दो हाँथ कि रस्सी उन्हें बन्धन में जकड लेते।
माँगते वरदान,
की हे लक्ष्मी माँ करो कल्याण।
हमें ऐसा बम दो,
जिसकी कीमत कम हो।
कीमत कम होगी तो अधिक बम खरीद पाऐंगे,
फुस्स हुऐ बम फिर कभी नहीं जलाऐंगे,
फिर हम नहीं तुमसे कुछ फरीयाद करेंगे,
उसके बाद हीं तुम्हें बन्धन से आजाद करेंगे।
जब हमारा घर धन से भर जाऐगा,
पडोस का लाला जल भून कर मर जाऐगा।

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