अस्तित्वहीन दिशाहीन
निरर्थक
अब तक का मेरा जीवन
शून्य से भी बङा शून्य
सिर्फ कोशिश
और अल्पविराम
दाने दाने को
भूख मिटाने को
जीवन का ये महासंग्राम
यथाचित र्निलज्जतावश
मूक दर्शक सा विवश
देखता हूँ
इस धरा के लोग को
कुछ करूं पर क्या करूं मैं
कब तलक यूँ ही जियूँ
और
कब तलक यूँ ही मरूं मैं
कु्छ सवाल
करती हैं मुझसे निगाहें
आईने के सामने होता हूँ जब मैं
खो गया इस भीङ में
खो गई आवाज़ मेरी
ऐक आशा की किरन है दूर
कुछ खुशीयाँ लुटाती
राह तकता
ख़्वाब बुनता
बैठा हूँ मैं उन पलछिन का
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