"मचान" ख्वाबो और खयालों का ठौर ठिकाना..................© सर्वाधिकार सुरक्षित 2010-2013....कुमार संतोष

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

भोर की पहली किरण


भोर की पहली किरण क्यों रूठी रूठी सी लगी
चहचहाते पंक्षियों की शोर में था कुछ गिला
कुछ हवा भी मंद थी
मौसम भी था रूठा हुआ
मैंने सोंचा आज जाने सब को ये फिर क्या हुआ
क्यों भला मौसम के सिने मैं ये मीठा दर्द है
पंक्षियों की चह-चहाह्ट भी भला क्यों सर्द है
मैंने देखा
एक दरख्त
सर झुकाए था खड़ा
आँख में आंसू था उसके
और जिस्म सूखा पड़ा
वक़्त के किस्से थे लटके
और कई निसान चेहरे पर था
मैं खड़ा स्तब्ध था कुछ पल
फिर मैं उसके पास गया
मैंने पुछा बात क्या है
तुम खड़े हो कई वक़्त से
गुजरे पलों के जज़्बात क्या हैं
कुछ न बोला
चुप चाप वो सुनता रहा
कुछ तो कोशिस
की थी उसने बोलने की
बात फिर थम सी गई
आँख फिर नम सी गई
पास बैठे पेङ ने मुझसे कहा
आज अपना आखरी दिन है यहाँ
कल यहाँ एक सहर फिर बस जायेगा
पंक्षियां ढूंडेगी अपना घोंसला
पंथियों को भी ये सूरज
रोज़ फिर झूल्साऐगा
बात सच है आज कल
किसको यहाँ किसकी पड़ी
इंसानियत ख़तम हो चुकी
अब आ गई ऐसी घडी !!!!!

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