"मचान" ख्वाबो और खयालों का ठौर ठिकाना..................© सर्वाधिकार सुरक्षित 2010-2013....कुमार संतोष

बुधवार, 4 अगस्त 2010

हकीकत में यथार्त


ज़िन्दगी मुझे रोज़ ऐक नया फलसफा सिखाने लगी।
फिर आँखे क्यों हकीकत में यथार्त से डबडबाने लगी।
कुछ रंजोगम की तस्वीर मेरे अस्तित्व मे समा गये।
चन्द आँसू की बूंदे मेरे आँखो के साहिल तक आ गये।
भूख से बिलखते छोटे बच्चे को वो दूध पिलाने लगी।
भूखी बिटिया दूध न उतरने पर फिर से चिल्लाने लगी।
मेरे मन में कई सवाल उठने लगे थे इस मंज़र के।
चारो तरफ पहाङ से बनने लगे थे अस्थी पंज़र के।
अब हर तरफ भूख और बदहाली नज़र आने लगी।
आँखे फिर मेरी हकीकत में यथार्त से डबडबाने लगी।
धूल फ़ाकते आँसू पीते चन्द लोग थे ज़िंदा अभी।
वो दहशतगर्दी इतने पर भी न थे शर्मिन्दा कभी।
लाशो का अम्बार हर तरफ ख़ून पङा था राहों मे।
नन्ही सी बिटिया के टूकडे पडे थे माँ की बाहों में।
और चिता जलती थी धूँ-धूँ करके सबके आँगन में।
कहीं पिघलता काजल था और कहीं ख़ून था कंगन में।
थोडे से लालच के लिऐ नियती क्या क्या करवाने लगी।
आँखे फिर मेरी हकीकत में यथार्त से डबडबाने लगी।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही अच्छी रचना है.
    यूँ ही लिखते रहिये यदि कोई कमी होगी तो लेखन करते-करते दूर हो जायेगी.

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत-बहुत शुक्रिया आपके कहे अनूसार मैनें वर्ड वेरिफिकेशन हटा दिया है। आशा करता हूँ कि आगे भी आप जैसे भाई एवं बन्धुओं का मार्गदर्शन ऐसे हीं प्राप्त होता रहेगा।

    जवाब देंहटाएं

आपकी प्रतिक्रिया बहुमूल्य है !

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