सोमवार, 6 सितंबर 2010
तलाश एक बार फिर
वक़्त गुजरा
सदियाँ बीती
एक उम्र बसर हुई
आज न जाने क्यों
यादों की बंद खिड़की को खोल
उन झरोखों से झाकने का दिल हुआ
जिन्हें लम्हों के जाले ने धुंधला कर दिया
आँखों का खुद पर से भरोसा उठ गया
खिड़की के उस पार का
वो पल
अब भी वहीँ थमा हुआ था,
जिस वक़्त मेंने खिड़की बंद की थी
वो फेरीवाला आज भी
खट्टी मीठी गोलियाँ की आवाज लगता
गली के नुक्कड़ पर
ओझल हो जाता है आँखों से
में बेतहाशा भागता हूँ
उसकी और
और दुसरे गली के नुक्कड़ पर
उसे पकड़ ही लेता हूँ
चेहरे पर ख़ुशी
पल भर के लिए आती है
और पल में ही काफूर हो जाती है
जब मेरी इकलौती अठन्नी
जेब में नहीं मिलती
इस भागा-दौड़ी में
इकलौती अठन्नी
जाने कहाँ खो गई
ढूँढता हूँ बेसब्र होकर
सिर्फ अठन्नी खोई होती तो
शायद
मिल भी जाती
किस्मत भी कहीं ग़ुम हो चुकी थी
मगर तब तलक ढूंढता रहा
जब तक
उजालों ने मेरा साथ न छोड़ दिया
मगर खिड़की के इस पार
आज यही हालात थे मेरे
जीवन की भागा- दौड़ी में
कुछ रिश्ते
जाने किन पड़ाव पर खो गए
क्या उस अठन्नी जितनी कीमत भी नहीं
इन रिस्तो की
तो क्या इन्हे यूँ ही खोने दूं
एक बार फिर
तलाश करनी है
उस अठन्नी की
इन रिस्तो की शक्ल में
किस्मत कभी तो मेरे साथ होगी हीं !!!
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अच्छी लगी कविता आपकी।
जवाब देंहटाएंजीवन की खिड़की खोलो तो कुछ पल हमेशा खड़े मिलते है.इंतज़ार में...
जवाब देंहटाएंसंतोष जी बहुत अच्छी कविता लिखी है आपने .....
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