हवाओं से टकराती
पत्तो पर लिपटती
फिसल कर मिट जाती है
जो कोई
स्पर्श करे
नर्म हाथों से
तो खुद में ही सिमट जाती है
तो कभी
खेतो में
धान कि बालियों पर
अटखेलियाँ करती
मंद हवाओं से
झूलती
घूंघट में पड़ी
दुल्हन सी खामोश
तो कभी
किसी महबूब के हांथो पर
माशूक की
चहल कदमी का
एहसास दिलाती हुई मदहोश
रूप का सागर
समेटे
आने वाली सुबह का
इंतज़ार करती है
कभी धूप में
कभी छाओं में
कभी बहारों की
फिजाओं में
आने वाले मुसाफिर की
राह तकती है
ओस
हाँ वही ओस
जो केवल अपने लिए नहीं
बल्कि औरों की
ख़ुशी के लिए मिटती
और फिर अगली सुबह
जीवित होती है
हाँ वही ओस
जवाब देंहटाएंजो केवल अपने लिए नहीं
बल्कि औरों की
ख़ुशी के लिए मिटती
और फिर अगली सुबह
जीवित होती है
बहुत सुंदर कविता...बिल्कुल ओस की तरह
http://veenakesur.blogspot.com/
यहां भी जरूर आएं और मेरी या किसी की भी रचनाएं पसंद आएं तो अपनी बहुमूल्य राय दें और फॉलो अवश्य करें...
वीणा जी बहुत बहुत शुक्रिया आपका जो आपने अपना समय मेरे ब्लॉग के लिए निकला, आपकी हर रचना मैं पढता हूँ !
जवाब देंहटाएंbahut achchi.
जवाब देंहटाएं