रविवार, 19 सितंबर 2010
एक शाम उधार दे दो
एक शाम उधार दे दो
कुछ पल
ख़ुशी के तो जी सकूं,
इस जहाँ में
मेरा भी कुछ अस्तित्व हो
इसके लिए मुझे
एक नाम चाहिए
तुम मुझे वो नाम उधार दे दो
अपने ही गर्दिश के
सितारों में उलझा
सोया सा
मुकद्दर मेरा
माहुर कि घूँट
जलाती जिस्म
ये सब भूलना चाहता हूँ
इसके लिए मुझे
एक जाम चाहिए
तुम मुझे वो जाम उधार दे दो
भूख का
वो हँसता हुआ चेहरा
दर्द कि
वो फटी हुई चादर
हलक से निकलती
वो चीख
ये सब मिटाना चाहता हूँ
जानता हूँ
ये काम मुश्किल है बहुत
फिर भी
तुम मुझे वो काम उधार दे दो
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मन के भावों को शब्द दिए हैं .. अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छे शब्द दिए हैं इन भावो को..
जवाब देंहटाएंएक बात याद आई आपकी रचना पढ़ कर..
बिन मांगे मोती मिलें ...मांगे मिले ना भीख.
दिल मे उतर गयी आपकी रचना।
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट आज के चर्चामंच का आकर्षण बनी है । चर्चामंच पर आकर अपने विचारों से अवगत करायें।
http://charchamanch.blogspot.com
संतोष जी बहुत ही अच्छी कविता लगी !
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