तुम कहती हो तो
कह देता हूँ
लोगों का क्या
वो तो कविता ही समझेंगे
जब से तुम
गई हो
गमलो में
पौधे हँसना भूल गए हैं
बरामदे में
धूप कि किरने
आती तो हैं, मगर
रौशनी कहीं घुल गई है
परिंदे भी छत पर
कम हो गए
उन्हें भी तो आदत थी
तुम्हारे हाँथो के बाजरे की
शाम को अक्सर अब
जल्दी घर लौटता हूँ
और दरवाजे पर ठिठक जाता हूँ
शायद मेरे कदमो की
आह्ट सुनकर तुम फिर से दरवाजा खोलो
हूँ न बेवकूफ
सब जानता हूँ
फिर भी सपने बुनता हूँ
सपने में आज
तुम्हे देखा
जान भूझ कर रूठ गया था तुमसे
तुम मनाती हो
तो अच्छा लगता है
आँखे खुल गई
तो जबरदस्ती आँखे मूँद ली
सपनो में ही सही
कुछ पल तो तुम्हारे साथ रहूँ
इसी को शायद प्यार कहते हैं. सुंदर कविता में ढाला हें एहसासों को.
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया अनामिका जी !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और लाजवाब रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया बबली जी आपकी तारीफ़ का ! मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है !
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