मैं
एक मील का पत्थर
हर लम्हा
किसी मुसाफिर के आने का इंतज़ार है
हर मुसाफिर
जिसके चेहरे पर
जिंदगी के धूप का
पसीना है
माथे पर शिकन है
पल भर
आशा की
कटु नज़रों से
देखता मेरी तरफ
उसे उसकी मंजिल की दूरी का
एहसास
दुखी करता है
पर मैं क्या करूं
मैं
अनजाने चाह की तहतो में लिपटा
एक बेबस पत्थर
जो उसे उसकी मंजिल की
दूरी की झलक दिखाता हूँ
घूरते हैं मुझे
और निकल जाते हैं
संतोष जी बहुत अच्छी कविता है ! मील के पत्थर भी इतना सोंचते होंगे पता नहीं था ! काबिले तारीफ !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर कविता है संतोष जी ! अचानक ही ब्लॉग सर्च कर रही तो आपके ब्लॉग पर नज़र पड़ गई, आपने यहाँ हिंदी में लिखने का टूल लगाया हुआ है इसलिए हिंदी में कमेन्ट कर रही हूँ !
जवाब देंहटाएंमील का पत्थर...बनना बहुत कठिन है| बहुत सुन्दर कविता|
जवाब देंहटाएंकई जगह मात्राओं के दोष है उन्हें ठीक कर लें
बहुत बहुत शुभकामनाएं|
ब्रह्माण्ड
बहुत गहरी सोच को व्यक्त किया है।
जवाब देंहटाएंआप सबका अभिनन्दन है मेरे ब्लॉग पर !
जवाब देंहटाएं@ राणा प्रताप जी बहुत शुक्रिया मात्राओं के दोष की ओर ध्यान दिलवाने के लिए! मात्राओं को लेकर बचपन में बहुत डांट पड़ती थी ! मैंने अपनी तरफ से उन्हें ठीक कर लिया है, फिर भी मेरी नज़र से कोई चूक रह गई हो तो जरूर बताइयेगा !
क्या बात है...बहुत बढ़िया रचना.
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