"मचान" ख्वाबो और खयालों का ठौर ठिकाना..................© सर्वाधिकार सुरक्षित 2010-2013....कुमार संतोष

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

ख़त को ख़त ही रहने दो

ख्वाबों को देखता हूँ
सीढियों से उतरते
गुज़रते
दबे पाँव
नज़रें चुराते
गलियारों से
और उधर
तुम्हारे तकिये कि नीचे
वो लम्हा
चुराकर रखा
है अब तक
और लिफाफे में
इश्क के
हज़ारों जगरातें 
जुगनू तितली बादल मंजर
छोड़ो ख्वाबों कि बातें
तुम कहो
जूही के पौधे पर
फूल आ गए होंगे अब तो
क्या कहा
कैसे जाना
तुम्हारे ख़त में
खुशबू आती है उसकी
और हाँ
अगर हो सके
ख़त को ख़त ही रहने दो
ई मेल मत बनाओ
बेजान सी लगती हैं
बातें  

4 टिप्‍पणियां:

  1. संतोष जी आपकी हर कविता बहुत प्यारी लगती है !

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह क्या बात है, बहुत खूब !

    ख़त को ख़त ही रहने दो
    ई मेल मत बनाओ
    बेजान सी लगती हैं
    बातें

    सच ख़त वाली बात कहाँ होती है ई मेल में !

    जवाब देंहटाएं

आपकी प्रतिक्रिया बहुमूल्य है !

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