ज़िंदगी को हादसे की तरह देखा
कभी छुआ कभी फेंका
कल्पनाओं की लड़ियाँ सजाता रहा
खुद से दूर जाती चीज़ को बुलाता रहा
दूर तक देर तक
अनजाने चेहरे से अपना सवाल दोहराता रहा
सब घूरते थे गुज़र जाते थे
मेरे सपने जो अनमोल थे मेरे लिए
गिरते थे टूट कर बिखर जाते थे
शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010
बुधवार, 20 अक्टूबर 2010
पलछिन
आँखे........
"सनम"
आपकी आँखे
बहुत खूबसूरत हैं
हमसे बहुत कुछ कह देती हैं
इनका ख्याल रखना
क्योंकि
कोई है
जो इन्हें देखकर
अपनी जिंदगी जीता है !
खवाब..........
तुम मिले
तो खवाबो से
दोस्ती हो गई
जब तुम सामने थी
तो ख्वाब
आँखों के सामने था
अब नहीं हो तो
ख्वाब आँखों के भीतर हैं !
यादें.......
कब सोंचा था
की ख्वाब यादों में
सील से जायेंगे
तुम्हे हो न हो
मुझे
अब भी याद है
तुम्हारे ख्वाब
शब्दों की रेशमी शाल ओढ़े
वो छोटा सा घर हो
जगह मुख़्तसर हो
ज़रा भी हम घूमे
बस टकरा से जाएँ !
"सनम"
आपकी आँखे
बहुत खूबसूरत हैं
हमसे बहुत कुछ कह देती हैं
इनका ख्याल रखना
क्योंकि
कोई है
जो इन्हें देखकर
अपनी जिंदगी जीता है !
खवाब..........
तुम मिले
तो खवाबो से
दोस्ती हो गई
जब तुम सामने थी
तो ख्वाब
आँखों के सामने था
अब नहीं हो तो
ख्वाब आँखों के भीतर हैं !
यादें.......
कब सोंचा था
की ख्वाब यादों में
सील से जायेंगे
तुम्हे हो न हो
मुझे
अब भी याद है
तुम्हारे ख्वाब
शब्दों की रेशमी शाल ओढ़े
वो छोटा सा घर हो
जगह मुख़्तसर हो
ज़रा भी हम घूमे
बस टकरा से जाएँ !
रविवार, 17 अक्टूबर 2010
"तुम"
"तुम" को तोडा मैंने जब भी
अक्षर मैंने दो पाया
"तू" से तुम हो "म" से मैं हूँ
राज़ समझ मैं जब आया
तुम तो केवल तुम नहीं हो
मैं भी केवल मैं ही नहीं हूँ
या फिर कह लो हम ही हम हैं
फिर काहे की बात का गम हैं
तोड़ो मोड़ो शब्द बनाओ
"तू" से तुम्हारा "म" से मन है
कुछ शीतल है कुछ चन्दन हैं
कुछ शीतलता मुझको दे दो
मैं भी कुछ चन्दन हो जाऊँ
और कभी फिर निश्चल भाव से तुमको पाऊँ
"म" से मेरा "तू" से तुम्हारा
जो मेरा वो सब है तुम्हारा
हमारा कह ले जब हम ही हम हैं
फिर काहे की बात का गम हैं
तोड़ो मोड़ो शब्द बनाओ
"तू" से तुम हो "म" से मैं हूँ !!
अक्षर मैंने दो पाया
"तू" से तुम हो "म" से मैं हूँ
राज़ समझ मैं जब आया
तुम तो केवल तुम नहीं हो
मैं भी केवल मैं ही नहीं हूँ
या फिर कह लो हम ही हम हैं
फिर काहे की बात का गम हैं
तोड़ो मोड़ो शब्द बनाओ
"तू" से तुम्हारा "म" से मन है
कुछ शीतल है कुछ चन्दन हैं
कुछ शीतलता मुझको दे दो
मैं भी कुछ चन्दन हो जाऊँ
और कभी फिर निश्चल भाव से तुमको पाऊँ
"म" से मेरा "तू" से तुम्हारा
जो मेरा वो सब है तुम्हारा
हमारा कह ले जब हम ही हम हैं
फिर काहे की बात का गम हैं
तोड़ो मोड़ो शब्द बनाओ
"तू" से तुम हो "म" से मैं हूँ !!
सोमवार, 11 अक्टूबर 2010
मैं हूँ प्रियवर प्राण तुम्हारा
मैं हूँ प्रियवर प्राण तुम्हारा
तुम कोमल रजनीगंधा हो
मैं हूँ रात अमावस काली
तुम अनमोल सुगंध संध्या हो
मैं वीणा तुम तार हो सखी
मैं चाहत तुम प्यार हो सखी
तुम हो सात स्वरों में रंजित
ऋतू वर्षा मल्हार हो सखी
मैं कपास अवांछित वन का
तुम पुलकित पलाश उपवन का
मृग-तृष्णा मैं मरुस्थल में
तुम सुगन्धित चन्दन वन का
शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010
वर दे वर दे हे माँ दुर्गे
वर दे, वर दे, हे माँ दुर्गे
पाठक से मेरा ब्लॉग तू भर दे
ब्लोगिंग लगे रीत अब न्यारी
रिश्तों की भी जिम्मेवारी
रूठी पत्नी प्रिय अति प्यारी
उसे मनाने का अवसर दे
वर दे, वर दे, हे माँ दुर्गे
जो लिखूं वो हिट हो जाये
लिखूं मलता फिट हो जाये
टिप्पणी अनलिमिट हो जाये
ब्लोगिंग का ऐसा तू हुनर दे
वर दे, वर दे, हे माँ दुर्गे
रस, अलंकार, छंद, उपमाएँ
लिखे चुटकुलों पर कवितायेँ
बेनामी भी सर को झुकाएँ
हो जाये कुछ मंतर कर दे
वर दे, वर दे, हे माँ दुर्गे
ब्लोगिंग का चर्चा है यार में
नाम हो गया कारोबार में
घूमू बनकर सेठ कार में
ऐसी लाटरी मेरे घर दे
वर दे, वर दे, हे माँ दुर्गे
आप सभी को नवरात्रि के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं !
मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010
आज और कल हर एक पल
यूँ ही कभी जाने अनजाने तुम्हारा ख्याल जब भी ज़हन पर यादों की सिलवटें बन जाया करता है तो चाहतों में तुम्हारे लिए अब भी दुआएँ ही निकलती हैं ! फकत दुआएँ !
आज और कल
हर एक पल
कस्तूरी की महक में
डूबी हुई शाम की तरह
एक नाम के साथ
एहसास का नयापन
हजारो लाखो तारों के बीच
अकेला चाँद
सिर्फ तुम
तुम्हारा नाम
कुछ चांदनी
कुछ सुनहरी रात
दामन में तुम्हारे
बिखरे हर पल
एक स्तब्ध हलचल
तुम्हारे घर आना हो खुशियों का
दरवाजे पर
नई शाम का पहरा
कुछ बादल
कुछ ऊँचे पर्वत
रंग बिरंगी तितलियों के पर
आँगन में
और एक
नन्ही सी तुलसी
रात की काजल मैं भीगी
शबनम की खुशबू
धुंआ-धुंआ सा उड़ता बादल
आज और कल
हर एक पल
आज और कल
हर एक पल
कस्तूरी की महक में
डूबी हुई शाम की तरह
एक नाम के साथ
एहसास का नयापन
हजारो लाखो तारों के बीच
अकेला चाँद
सिर्फ तुम
तुम्हारा नाम
कुछ चांदनी
कुछ सुनहरी रात
दामन में तुम्हारे
बिखरे हर पल
एक स्तब्ध हलचल
तुम्हारे घर आना हो खुशियों का
दरवाजे पर
नई शाम का पहरा
कुछ बादल
कुछ ऊँचे पर्वत
रंग बिरंगी तितलियों के पर
आँगन में
और एक
नन्ही सी तुलसी
रात की काजल मैं भीगी
शबनम की खुशबू
धुंआ-धुंआ सा उड़ता बादल
आज और कल
हर एक पल
शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010
लालच के बंधन को तोड़ो
अपना तो बस यही नारा है
जो मिला हमें वही प्यारा है
जो नहीं मिला उसको छोड़ो
लालच के बंधन को तोड़ो
जितना हो भाग्य में मिलता है
मेहनत का फूल भी खिलता है
बिन हवा शाख कब हिलता है
कोशिस करना तुम मत छोड़ो
लालच के बंधन को तोड़ो
मत आस करो हक़ से ज्यादा
मत बनो रास्ते की बाधा
अब बीत चूका जीवन आधा
मन का रिश्ता जन से जोड़ो
लालच के बंधन को तोड़ो
जागो मन से कुछ काम करो
निष्पाप करो निष्काम करो
मत व्यर्थ यूँही आराम करो
जीवन पथ को सच से जोड़ो
लालच के बंधन को तोड़ो
जो कहा सुना सब माफ़ करो
मन की दुर्बलता साफ़ करो
मानवता का इन्साफ करो
गुण को लो अवगुण को छोड़ो
लालच के बंधन को तोड़ो
है जन्म लिया इस धरती पर
माँ के चरणों में है अम्बर
दुष्टों के चालो में आकर
मत मात पिता को तुम छोड़ो
लालच के बंधन को तोड़ो
करना, मन में जब ठानी है
जीवन तो बहता पानी है
जब खून में जोश जवानी है
धमनी में रक्त सा तुम दौड़ो
लालच के बंधन को तोड़ो
तुम विजय रहो निर्माण करो
भारत के वीर सपूत हो तुम
मत मातृभूमि का दान करो
विषधर के सर को फोड़ो
लालच के बंधन को तोड़ो
गुरुवार, 30 सितंबर 2010
ख़त को ख़त ही रहने दो
ख्वाबों को देखता हूँ
सीढियों से उतरते
गुज़रते
दबे पाँव
नज़रें चुराते
गलियारों से
और उधर
तुम्हारे तकिये कि नीचे
वो लम्हा
चुराकर रखा
है अब तक
और लिफाफे में
इश्क के
हज़ारों जगरातें
जुगनू तितली बादल मंजर
छोड़ो ख्वाबों कि बातें
तुम कहो
जूही के पौधे पर
फूल आ गए होंगे अब तो
क्या कहा
कैसे जाना
तुम्हारे ख़त में
खुशबू आती है उसकी
और हाँ
अगर हो सके
ख़त को ख़त ही रहने दो
ई मेल मत बनाओ
बेजान सी लगती हैं
बातें
सीढियों से उतरते
गुज़रते
दबे पाँव
नज़रें चुराते
गलियारों से
और उधर
तुम्हारे तकिये कि नीचे
वो लम्हा
चुराकर रखा
है अब तक
और लिफाफे में
इश्क के
हज़ारों जगरातें
जुगनू तितली बादल मंजर
छोड़ो ख्वाबों कि बातें
तुम कहो
जूही के पौधे पर
फूल आ गए होंगे अब तो
क्या कहा
कैसे जाना
तुम्हारे ख़त में
खुशबू आती है उसकी
और हाँ
अगर हो सके
ख़त को ख़त ही रहने दो
ई मेल मत बनाओ
बेजान सी लगती हैं
बातें
रविवार, 26 सितंबर 2010
कुछ पल तो तुम्हारे साथ रहूँ
तुम कहती हो तो
कह देता हूँ
लोगों का क्या
वो तो कविता ही समझेंगे
जब से तुम
गई हो
गमलो में
पौधे हँसना भूल गए हैं
बरामदे में
धूप कि किरने
आती तो हैं, मगर
रौशनी कहीं घुल गई है
परिंदे भी छत पर
कम हो गए
उन्हें भी तो आदत थी
तुम्हारे हाँथो के बाजरे की
शाम को अक्सर अब
जल्दी घर लौटता हूँ
और दरवाजे पर ठिठक जाता हूँ
शायद मेरे कदमो की
आह्ट सुनकर तुम फिर से दरवाजा खोलो
हूँ न बेवकूफ
सब जानता हूँ
फिर भी सपने बुनता हूँ
सपने में आज
तुम्हे देखा
जान भूझ कर रूठ गया था तुमसे
तुम मनाती हो
तो अच्छा लगता है
आँखे खुल गई
तो जबरदस्ती आँखे मूँद ली
सपनो में ही सही
कुछ पल तो तुम्हारे साथ रहूँ
कह देता हूँ
लोगों का क्या
वो तो कविता ही समझेंगे
जब से तुम
गई हो
गमलो में
पौधे हँसना भूल गए हैं
बरामदे में
धूप कि किरने
आती तो हैं, मगर
रौशनी कहीं घुल गई है
परिंदे भी छत पर
कम हो गए
उन्हें भी तो आदत थी
तुम्हारे हाँथो के बाजरे की
शाम को अक्सर अब
जल्दी घर लौटता हूँ
और दरवाजे पर ठिठक जाता हूँ
शायद मेरे कदमो की
आह्ट सुनकर तुम फिर से दरवाजा खोलो
हूँ न बेवकूफ
सब जानता हूँ
फिर भी सपने बुनता हूँ
सपने में आज
तुम्हे देखा
जान भूझ कर रूठ गया था तुमसे
तुम मनाती हो
तो अच्छा लगता है
आँखे खुल गई
तो जबरदस्ती आँखे मूँद ली
सपनो में ही सही
कुछ पल तो तुम्हारे साथ रहूँ
शुक्रवार, 24 सितंबर 2010
आओ मिलकर फुटबाल खेलें
आओ मिलकर फुटबाल खेलें
जय बम भोले जय बम भोले
भांग धतुरा पी के साधो
इधर उधर कि टीम में होलें
हम सब करें गोल पर गोल
जय रघुनन्दन जय सिया बोल
पंडित ढोंगी राम सुनो जी
तुम बस बजाओ ढोल पे ढोल
बांकी सब खेलें फुटबाल
नरक स्वर्ग सब बाद में होगी
हम भी जोगी तुम भी जोगी
फुटबाल खेलें बन कर भोगी
खेल खेलते जोर से बोलें
आओ मिलकर फुटबाल खेलें
जय बम भोले जय बम भोले
जय बम भोले जय बम भोले
भांग धतुरा पी के साधो
इधर उधर कि टीम में होलें
हम सब करें गोल पर गोल
जय रघुनन्दन जय सिया बोल
पंडित ढोंगी राम सुनो जी
तुम बस बजाओ ढोल पे ढोल
बांकी सब खेलें फुटबाल
नरक स्वर्ग सब बाद में होगी
हम भी जोगी तुम भी जोगी
फुटबाल खेलें बन कर भोगी
खेल खेलते जोर से बोलें
आओ मिलकर फुटबाल खेलें
जय बम भोले जय बम भोले
संता की परेशानी
संता कुछ परेशान सा घूम रहा था
अपने मन में जाने क्या सवाल बुन रहा था
पुरे घर में भटक रहा था
एक सवाल जो उसकी खोपड़ी में अटक रहा था
कि सारे चुटकुले संता पर ही क्यों बनते हैं
अरे दुनीयाँ में और भी तो लोग हैं
क्या हमी सिर्फ चुटकुले के योग्य हैं
हर चुटकुले हर बात में हमें ही घुसेड दिया जाता है
किसी की बेईजती करनी हो तो हमें ही भेड़ दिया जाता है
तभी संता की पत्नी मटकते हुए आई
मुस्कुराई फिर जोर से चिल्लाई
मैं तो तुमसे भर पाई
सुबह से एक भी काम नहीं किया
तुमने मुझे कौन सा सुख दिया
महीने हो गए मायके गए
कम से कम मायके ही घुमा लाते
मुन्ने ने बिस्तर पर पोट्टी की
पोट्टी वहीँ छोड़ दी
कम से कम मुन्ने को ही धुला लाते
पडोसी से सीखो
हर महीने अपनी बीवी को नए जेवर दिलाता है
देर रात तक बीवी के पैर दवाता है
सुबह से देख रही हूँ इधर से उधर मचल रहे हो
आखिर ऐसी कौन सी ग़ज़ल लिख रहे हो
संता बोला अरी बंतो मैं अपने ही सवाल से परेशान हूँ
तू अपना ही राग गा रही है
मदत करती हो तो बता वरना क्यों मेरा दिमाग खा रही है
हर बात हर चुटकुले में मैं दाखिल हूँ कहीं न कहीं
कोई ऐसी बात बता जिसमे मैं शामिल नहीं
बंतो बोली अजी वैसे तो हार बात आपसे होकर गुजरने वाली है
मगर एक बात जिसमे आप शामिल नहीं हो वो ये है जो बताने वाली है
हौसला रखना मैं बिलकुल सच कहने वाली हूँ
में एक और बच्चे की माँ बनने वाली हूँ
अपने मन में जाने क्या सवाल बुन रहा था
पुरे घर में भटक रहा था
एक सवाल जो उसकी खोपड़ी में अटक रहा था
कि सारे चुटकुले संता पर ही क्यों बनते हैं
अरे दुनीयाँ में और भी तो लोग हैं
क्या हमी सिर्फ चुटकुले के योग्य हैं
हर चुटकुले हर बात में हमें ही घुसेड दिया जाता है
किसी की बेईजती करनी हो तो हमें ही भेड़ दिया जाता है
तभी संता की पत्नी मटकते हुए आई
मुस्कुराई फिर जोर से चिल्लाई
मैं तो तुमसे भर पाई
सुबह से एक भी काम नहीं किया
तुमने मुझे कौन सा सुख दिया
महीने हो गए मायके गए
कम से कम मायके ही घुमा लाते
मुन्ने ने बिस्तर पर पोट्टी की
पोट्टी वहीँ छोड़ दी
कम से कम मुन्ने को ही धुला लाते
पडोसी से सीखो
हर महीने अपनी बीवी को नए जेवर दिलाता है
देर रात तक बीवी के पैर दवाता है
सुबह से देख रही हूँ इधर से उधर मचल रहे हो
आखिर ऐसी कौन सी ग़ज़ल लिख रहे हो
संता बोला अरी बंतो मैं अपने ही सवाल से परेशान हूँ
तू अपना ही राग गा रही है
मदत करती हो तो बता वरना क्यों मेरा दिमाग खा रही है
हर बात हर चुटकुले में मैं दाखिल हूँ कहीं न कहीं
कोई ऐसी बात बता जिसमे मैं शामिल नहीं
बंतो बोली अजी वैसे तो हार बात आपसे होकर गुजरने वाली है
मगर एक बात जिसमे आप शामिल नहीं हो वो ये है जो बताने वाली है
हौसला रखना मैं बिलकुल सच कहने वाली हूँ
में एक और बच्चे की माँ बनने वाली हूँ
गुरुवार, 23 सितंबर 2010
ओस
हवाओं से टकराती
पत्तो पर लिपटती
फिसल कर मिट जाती है
जो कोई
स्पर्श करे
नर्म हाथों से
तो खुद में ही सिमट जाती है
तो कभी
खेतो में
धान कि बालियों पर
अटखेलियाँ करती
मंद हवाओं से
झूलती
घूंघट में पड़ी
दुल्हन सी खामोश
तो कभी
किसी महबूब के हांथो पर
माशूक की
चहल कदमी का
एहसास दिलाती हुई मदहोश
रूप का सागर
समेटे
आने वाली सुबह का
इंतज़ार करती है
कभी धूप में
कभी छाओं में
कभी बहारों की
फिजाओं में
आने वाले मुसाफिर की
राह तकती है
ओस
हाँ वही ओस
जो केवल अपने लिए नहीं
बल्कि औरों की
ख़ुशी के लिए मिटती
और फिर अगली सुबह
जीवित होती है
पत्तो पर लिपटती
फिसल कर मिट जाती है
जो कोई
स्पर्श करे
नर्म हाथों से
तो खुद में ही सिमट जाती है
तो कभी
खेतो में
धान कि बालियों पर
अटखेलियाँ करती
मंद हवाओं से
झूलती
घूंघट में पड़ी
दुल्हन सी खामोश
तो कभी
किसी महबूब के हांथो पर
माशूक की
चहल कदमी का
एहसास दिलाती हुई मदहोश
रूप का सागर
समेटे
आने वाली सुबह का
इंतज़ार करती है
कभी धूप में
कभी छाओं में
कभी बहारों की
फिजाओं में
आने वाले मुसाफिर की
राह तकती है
ओस
हाँ वही ओस
जो केवल अपने लिए नहीं
बल्कि औरों की
ख़ुशी के लिए मिटती
और फिर अगली सुबह
जीवित होती है
बुधवार, 22 सितंबर 2010
बिजली कहाँ से आती है ?
स्कूल में मास्टर जी बच्चो का ज्ञान बढ़ा रहे थे
साईंस के टीचर थे सो विज्ञान पढ़ा रहे थे
ब्लैक बोर्ड पर सवाल लिखा, कि बिजली कहाँ से आती है ?
फिर अपनी पैनी निगाहों को चारो ओर घुमाया
और सोंच विचार कर रामू को खड़ा करवाया
बोले रामू तुम्हारी अकल्बंदी मुझे सबसे ज्यादा सताती है
तुम ही बताओ आखिर बिजली कहाँ से आती है ?
रामू खड़ा हो गया डर से
बोला मास्टर जी मामा के घर से
मास्टर जी बोले वो कैसे
रामू ने जवाब समझाते हुए मास्टर जी को फिर से मात दी
बोला बिजली जाती है तो पापा कहते हैं कि सालों ने फिर से काट दी !
कॉमनवेल्थ नहीं कम ऑन वेल्थ
कॉमनवेल्थ नहीं कम ऑन वेल्थ
कॉमनवेल्थ खेल के नाम पर जिसे मौका मिल रहा है अपनी जेब भरने में लगा है ! फ्लाईओवर, ब्रिज, जल्दबाजी में धड़ल्ले से बनाये जा रहे है, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि इन सस्ते काम का खामियाजा आम जानता को भरना पड़ता है ! नेहरु स्टेडियम का ब्रिज अभी बनके तैयार भी नहीं हुआ कि उससे पहले टूट कर गिर गया और हमारे नेता है कि कह रहे हैं कि ये छोटे मोटे हादसे होते रहते हैं ! ये कैसा कॉमनवेल्थ गेम है ! ये तो कॉमनवेल्थ कम और कम ऑन वेल्थ (come on wealth)जयादा लग रहा है !!
कॉमन वेल्थ के नाम पर, देश को रहे लूट
नेता जी घपला करें , पहन कर सूट बूट
पहन कर सूट बूट करोडो का चुना लगाया
खाए रूपए करोड़, हज़ार का पुल बनवाया
लूट खसोट कर जानता से है खूब कमाया
फ्लाईओवर का ठेका साले को दिलवाया
कॉमनवेल्थ का मतलब नेता जी समझाएँ
कम ऑन वेल्थ है मतलब, खूब रूपईये खाएँ
कॉमन वेल्थ के नाम पर, देश को रहे लूट
नेता जी घपला करें , पहन कर सूट बूट
पहन कर सूट बूट करोडो का चुना लगाया
खाए रूपए करोड़, हज़ार का पुल बनवाया
लूट खसोट कर जानता से है खूब कमाया
फ्लाईओवर का ठेका साले को दिलवाया
कॉमनवेल्थ का मतलब नेता जी समझाएँ
कम ऑन वेल्थ है मतलब, खूब रूपईये खाएँ
रविवार, 19 सितंबर 2010
एक शाम उधार दे दो
एक शाम उधार दे दो
कुछ पल
ख़ुशी के तो जी सकूं,
इस जहाँ में
मेरा भी कुछ अस्तित्व हो
इसके लिए मुझे
एक नाम चाहिए
तुम मुझे वो नाम उधार दे दो
अपने ही गर्दिश के
सितारों में उलझा
सोया सा
मुकद्दर मेरा
माहुर कि घूँट
जलाती जिस्म
ये सब भूलना चाहता हूँ
इसके लिए मुझे
एक जाम चाहिए
तुम मुझे वो जाम उधार दे दो
भूख का
वो हँसता हुआ चेहरा
दर्द कि
वो फटी हुई चादर
हलक से निकलती
वो चीख
ये सब मिटाना चाहता हूँ
जानता हूँ
ये काम मुश्किल है बहुत
फिर भी
तुम मुझे वो काम उधार दे दो
शुक्रवार, 17 सितंबर 2010
कुछ न कुछ लेकर ही आना
बहुत सी जातक कथाएँ, लोक कथाएँ पढ़ी हैं, मगर उससे जयादा सुनी हैं ( बाबु जी से ) ! बाबु जी के पास जीवन की हर छोटी बड़ी घटनाओ को लेकर एक न एक कहानी जुबानी रहती है ! हर बात के पीछे " वो कहानी है ना " जोड़ देना उनके लिए सहज है ! आज शाम को ऑफिस से घर आया तो घरवालों के याद दिलाने पर याद आया कि मैं माँ की दवाई लाना भूल गया हूँ ! इससे पहले सभी दुकान बंद हो जाती मैं नुक्कड़ पर केमिस्ट की दुकान से दवाई ले आया ! रात को खाना खाते वक़्त बाबु जी ने कहा ..."आज तुम दवाई लाना भूल गए हो, और कभी भी अपनी मर्ज़ी से कुछ भी खरीद कर नहीं लाते हो घर मैं, कल से रोज़ कुछ न कुछ लाना होगा वरना घर के अंदर आने की मनाही होगी !" मैंने कहा... " ये क्या बात हुई, कुछ न कुछ से क्या मतलब है ? "
बाबु जी बोले... " कुछ न कुछ से मतलब है कुछ भी जैसे फल, सब्जी, मिठाई, कपडे, लकड़ी, पत्थर,मिटटी कुछ भी"
मैं मन ही मन हँसा मगर चेहरे पर गंभीरता बनी रही ! मैंने कहा...
" ये सब समझा मगर पत्थर, लकड़ी, इन सब चीजों का क्या फायदा, इन सब का क्या होगा ?"
मेरे मन में उठ रहे सवाल को ख़तम करने के लिए बाबु जी ने एक कहानी सुनानी शुरू की..
एक राज्य में गरीब ब्राह्मन अपनी धर्म पत्नी के साथ रहता था ! दूसरों के घर में पूजा अनुष्टान करने पर जो धन प्राप्त होता उससे उनका गुजर बसर हो जाता था ! कभी कभी दान में अनाज और फल भी मिल जाया करता था ! मगर कुछ दिनों से ब्राह्मण को न ही पूजा अनुष्टान के लिए कोई आमंत्रित करता और उसे कोई दान भी नहीं मिल रहा था ! ब्राह्मण शाम को रोज़ खाली हाँथ घर आने लगा ! एक दिन ब्राह्मण की पत्नी बोली आप रोज़ खाली हाँथ घर आ जाते हो इस तरह गुजर कैसे होगा, कल से आप रोज़ कुछ न कुछ लेकर ही आना मगर खाली हाँथ मत आना ! ब्राह्मण सोंचने लगा की आज कल कोई पूजा अनुष्टान तो करवा नहीं रहा, दान भी मुश्किल से कभी कभी मिलता है, अब ऐसे में रोज़ क्या लेकर आऊं, ! अगले दिन सुबह सुबह ही ब्राह्मण घर से निकल गया कि शायद आज कुछ धन का इंतजाम हो जायेगा मगर शाम तक ब्राह्मण ने न ही कुछ धन कमाए और न ही कहीं से कोई दान मिला ! वापस आते समय उसे अपनी पत्नी की बात याद आई कि उसने कहा है की कुछ न कुछ जरूर लाना है ! ब्राह्मण सोंचने लगा की अब घर क्या लेकर जाऊं ! जंगल से घर की तरफ जाते समय ब्राह्मण को ख्याल आया की क्यों न आज जंगल से लकड़ियाँ ही उठा लूं ! ब्राह्मण जंगल में से पेढ की टूटी लकड़ियाँ उठाने लगा और उन्हें जमा करके घर ले आया ! घर आकर पत्नी से कहा की तुमने कहा था कुछ न कुछ जरूर लाना तो आज मैं ये लकड़ियाँ लाया हूँ ! पत्नी ने उन लकड़ियों के गट्ठर को आँगन में रख दिया ! अगले दिन ब्राह्मण की पत्नी उन लकड़ियों के गट्ठर को बेच कर जो धन प्राप्त हुआ उससे अनाज खरीद लाइ ! कई दिनों तक यही सिलसिला चलता रहा, जब भी ब्राह्मण को किसी दिन धन या दान नहीं मिलता वो जंगल से लकड़ियाँ उठा लाता ! एक रोज़ ब्राह्मण को न ही धन मिला, न ही दान और न ही वन में गिरी हुई लकड़ियाँ ! ब्राह्मण ये सोंच कर बहुत दुखी हुआ की आज घर क्या लेकर जाऊंगा, आज तो वन मैं सूखी लकड़ियाँ भी नहीं है ! तभी जंगल में उसने एक मरा हुआ सांप देखा ! ब्राह्मण उसे उठाकर घर की तरफ चल दिया ये सोंचता हुआ की आज हो न हो उसकी पत्नी उस पर जरूर नाराज़ होगी ! घर पहुच कर उसने अपनी पत्नी से कहा की आज सिर्फ ये मरा हुआ सांप मिला है, इसे हीं लेकर आया हूँ ! ये सुनकर ब्राह्मण की पत्नी बोली कोई बात नहीं कुछ तो लेकर आये हो न, इसे बहार आँगन में रख दो ! अगले दिन सुबह ब्राह्मण धन कमाने के लिए रोज़ की तरह घर से निकल गया ! राजमहल में महारानी ने नित्य स्नान के लिए अपने आभूषण उतार कर जैसे ही रखे, एक चील कहीं से उड़ता हुआ आया और उन आभूषण में से बेश कीमती हार अपनी चोंच में दबाकर ले उड़ा ! उड़ता हुआ चील जब ब्राह्मण के घर के ऊपर से जा रहा था तो उसकी नज़र मरे हुए सांप पर पड़ी ! चील अपना भोजन देख नीचे उतरा और उस हार को वहीँ छोड़ मरे हुए सांप को अपनी चोंच में दबा कर ले उड़ा ! उधर महारानी का हार खो जाने पर राजा ने हर और मुनादी करवा दी कि जो भी कोई महारानी का हार ढूँढ कर लायेगा उसे उच्च पुरूस्कार से सम्मानित किया जायेगा ! ये खबर सुनकर ब्राह्मण अपनी पत्नी के साथ गया और उसने वो हार राजा को सौप दिया ! राजा ने ब्राह्मण को धन से पुरुस्कृत किया और उसकी इमानदारी को देख कर अपनी राज्य का राज पुरोहित बना दिया !
मैं बाबु जी से कहानी सुनकर बहुत खुश हुआ ! जिस भी कहानी का अंत सुखद हो मन को बहुत ख़ुशी मिलती है ! फिर भी मैंने मन ही मन सोंचा की अब वो जमाना है कहाँ, जब सच्चाई और इमानदारी पर पुरस्कार मिलते थे ! आज कोई इसकी सराहना ही कर दे वही बहुत होता है ! मगर सच और इमानदारी के राह पर चलने वालों को इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि कोई उसकी इमानदारी या सच्चाई कि कद्र करता है या नहीं, वो तो बस सच्चाई और इमानदारी को ही अपना जीवन मान कर चलते रहते हैं !
बाबु जी बोले... " कुछ न कुछ से मतलब है कुछ भी जैसे फल, सब्जी, मिठाई, कपडे, लकड़ी, पत्थर,मिटटी कुछ भी"
मैं मन ही मन हँसा मगर चेहरे पर गंभीरता बनी रही ! मैंने कहा...
" ये सब समझा मगर पत्थर, लकड़ी, इन सब चीजों का क्या फायदा, इन सब का क्या होगा ?"
मेरे मन में उठ रहे सवाल को ख़तम करने के लिए बाबु जी ने एक कहानी सुनानी शुरू की..
एक राज्य में गरीब ब्राह्मन अपनी धर्म पत्नी के साथ रहता था ! दूसरों के घर में पूजा अनुष्टान करने पर जो धन प्राप्त होता उससे उनका गुजर बसर हो जाता था ! कभी कभी दान में अनाज और फल भी मिल जाया करता था ! मगर कुछ दिनों से ब्राह्मण को न ही पूजा अनुष्टान के लिए कोई आमंत्रित करता और उसे कोई दान भी नहीं मिल रहा था ! ब्राह्मण शाम को रोज़ खाली हाँथ घर आने लगा ! एक दिन ब्राह्मण की पत्नी बोली आप रोज़ खाली हाँथ घर आ जाते हो इस तरह गुजर कैसे होगा, कल से आप रोज़ कुछ न कुछ लेकर ही आना मगर खाली हाँथ मत आना ! ब्राह्मण सोंचने लगा की आज कल कोई पूजा अनुष्टान तो करवा नहीं रहा, दान भी मुश्किल से कभी कभी मिलता है, अब ऐसे में रोज़ क्या लेकर आऊं, ! अगले दिन सुबह सुबह ही ब्राह्मण घर से निकल गया कि शायद आज कुछ धन का इंतजाम हो जायेगा मगर शाम तक ब्राह्मण ने न ही कुछ धन कमाए और न ही कहीं से कोई दान मिला ! वापस आते समय उसे अपनी पत्नी की बात याद आई कि उसने कहा है की कुछ न कुछ जरूर लाना है ! ब्राह्मण सोंचने लगा की अब घर क्या लेकर जाऊं ! जंगल से घर की तरफ जाते समय ब्राह्मण को ख्याल आया की क्यों न आज जंगल से लकड़ियाँ ही उठा लूं ! ब्राह्मण जंगल में से पेढ की टूटी लकड़ियाँ उठाने लगा और उन्हें जमा करके घर ले आया ! घर आकर पत्नी से कहा की तुमने कहा था कुछ न कुछ जरूर लाना तो आज मैं ये लकड़ियाँ लाया हूँ ! पत्नी ने उन लकड़ियों के गट्ठर को आँगन में रख दिया ! अगले दिन ब्राह्मण की पत्नी उन लकड़ियों के गट्ठर को बेच कर जो धन प्राप्त हुआ उससे अनाज खरीद लाइ ! कई दिनों तक यही सिलसिला चलता रहा, जब भी ब्राह्मण को किसी दिन धन या दान नहीं मिलता वो जंगल से लकड़ियाँ उठा लाता ! एक रोज़ ब्राह्मण को न ही धन मिला, न ही दान और न ही वन में गिरी हुई लकड़ियाँ ! ब्राह्मण ये सोंच कर बहुत दुखी हुआ की आज घर क्या लेकर जाऊंगा, आज तो वन मैं सूखी लकड़ियाँ भी नहीं है ! तभी जंगल में उसने एक मरा हुआ सांप देखा ! ब्राह्मण उसे उठाकर घर की तरफ चल दिया ये सोंचता हुआ की आज हो न हो उसकी पत्नी उस पर जरूर नाराज़ होगी ! घर पहुच कर उसने अपनी पत्नी से कहा की आज सिर्फ ये मरा हुआ सांप मिला है, इसे हीं लेकर आया हूँ ! ये सुनकर ब्राह्मण की पत्नी बोली कोई बात नहीं कुछ तो लेकर आये हो न, इसे बहार आँगन में रख दो ! अगले दिन सुबह ब्राह्मण धन कमाने के लिए रोज़ की तरह घर से निकल गया ! राजमहल में महारानी ने नित्य स्नान के लिए अपने आभूषण उतार कर जैसे ही रखे, एक चील कहीं से उड़ता हुआ आया और उन आभूषण में से बेश कीमती हार अपनी चोंच में दबाकर ले उड़ा ! उड़ता हुआ चील जब ब्राह्मण के घर के ऊपर से जा रहा था तो उसकी नज़र मरे हुए सांप पर पड़ी ! चील अपना भोजन देख नीचे उतरा और उस हार को वहीँ छोड़ मरे हुए सांप को अपनी चोंच में दबा कर ले उड़ा ! उधर महारानी का हार खो जाने पर राजा ने हर और मुनादी करवा दी कि जो भी कोई महारानी का हार ढूँढ कर लायेगा उसे उच्च पुरूस्कार से सम्मानित किया जायेगा ! ये खबर सुनकर ब्राह्मण अपनी पत्नी के साथ गया और उसने वो हार राजा को सौप दिया ! राजा ने ब्राह्मण को धन से पुरुस्कृत किया और उसकी इमानदारी को देख कर अपनी राज्य का राज पुरोहित बना दिया !
मैं बाबु जी से कहानी सुनकर बहुत खुश हुआ ! जिस भी कहानी का अंत सुखद हो मन को बहुत ख़ुशी मिलती है ! फिर भी मैंने मन ही मन सोंचा की अब वो जमाना है कहाँ, जब सच्चाई और इमानदारी पर पुरस्कार मिलते थे ! आज कोई इसकी सराहना ही कर दे वही बहुत होता है ! मगर सच और इमानदारी के राह पर चलने वालों को इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि कोई उसकी इमानदारी या सच्चाई कि कद्र करता है या नहीं, वो तो बस सच्चाई और इमानदारी को ही अपना जीवन मान कर चलते रहते हैं !
गुरुवार, 16 सितंबर 2010
मील का पत्थर
मैं
एक मील का पत्थर
हर लम्हा
किसी मुसाफिर के आने का इंतज़ार है
हर मुसाफिर
जिसके चेहरे पर
जिंदगी के धूप का
पसीना है
माथे पर शिकन है
पल भर
आशा की
कटु नज़रों से
देखता मेरी तरफ
उसे उसकी मंजिल की दूरी का
एहसास
दुखी करता है
पर मैं क्या करूं
मैं
अनजाने चाह की तहतो में लिपटा
एक बेबस पत्थर
जो उसे उसकी मंजिल की
दूरी की झलक दिखाता हूँ
घूरते हैं मुझे
और निकल जाते हैं
एक मील का पत्थर
हर लम्हा
किसी मुसाफिर के आने का इंतज़ार है
हर मुसाफिर
जिसके चेहरे पर
जिंदगी के धूप का
पसीना है
माथे पर शिकन है
पल भर
आशा की
कटु नज़रों से
देखता मेरी तरफ
उसे उसकी मंजिल की दूरी का
एहसास
दुखी करता है
पर मैं क्या करूं
मैं
अनजाने चाह की तहतो में लिपटा
एक बेबस पत्थर
जो उसे उसकी मंजिल की
दूरी की झलक दिखाता हूँ
घूरते हैं मुझे
और निकल जाते हैं
बुधवार, 15 सितंबर 2010
छक्के पे छक्का
लाली लगा होंटों पे, करके सुनहरे बाल
सफ़ेद साड़ी पहिनकर, बिंदी लगाईं लाल
बिंदी लगाईं लाल, पिया ज़रा देखो हमको
इस गेटप को पहनकर कैसी लगती तुमको
हम बोले श्री मति जी तुम लग रही हो ऐसे
एम्बुलेंस चला आ रहा हास्पिटल का जैसे
प्यार व्यार सब छोड़ कर, करो कविता पाठ
कविता से गुण बढ़त हैं, खड़ी प्यार की खाट
खड़ी प्यार की खाट सुन लो मिस्टर भल्ला
पकडे गए तो हो जाओ बदनाम मोहल्ला
कविता की मस्ती में सबकुछ पा जाओगे
खा कर प्यार में धोका एक दिन पछताओगे
सफ़ेद साड़ी पहिनकर, बिंदी लगाईं लाल
बिंदी लगाईं लाल, पिया ज़रा देखो हमको
इस गेटप को पहनकर कैसी लगती तुमको
हम बोले श्री मति जी तुम लग रही हो ऐसे
एम्बुलेंस चला आ रहा हास्पिटल का जैसे
प्यार व्यार सब छोड़ कर, करो कविता पाठ
कविता से गुण बढ़त हैं, खड़ी प्यार की खाट
खड़ी प्यार की खाट सुन लो मिस्टर भल्ला
पकडे गए तो हो जाओ बदनाम मोहल्ला
कविता की मस्ती में सबकुछ पा जाओगे
खा कर प्यार में धोका एक दिन पछताओगे
सोमवार, 13 सितंबर 2010
चाँद तुम्हारे छत पर उतरा था
कल रात
मैंने खिड़की से देखा
चाँद तुम्हारे छत पर उतरा था
कुछ तो बातें कि होगी तुमसे
यूँ ही नहीं वो गया होगा
उस वक़्त
जब तूम विदा करने आई थी
चाँद को
गलियारे में
मैंने पहचाना नहीं
दोनों में से तुम कौन हो
और आज सुबह
जब तुम मंदिर में खड़ी थी
आँखे मूंदे
मैंने चुपचाप देखा था तुम्हे
सीढियों से
तुम्हारी बिंदिया
अरे
वो चाँद याद आ गया फिर से मुझे
आज अमावस है
जानता हूँ
आसमान में नहीं निकलेगा चाँद आज
मगर तुम छत पर जरूर आओगी
मुझे क्या
मुझे तो अपने चाँद से मतलब है
मैंने खिड़की से देखा
चाँद तुम्हारे छत पर उतरा था
कुछ तो बातें कि होगी तुमसे
यूँ ही नहीं वो गया होगा
उस वक़्त
जब तूम विदा करने आई थी
चाँद को
गलियारे में
मैंने पहचाना नहीं
दोनों में से तुम कौन हो
और आज सुबह
जब तुम मंदिर में खड़ी थी
आँखे मूंदे
मैंने चुपचाप देखा था तुम्हे
सीढियों से
तुम्हारी बिंदिया
अरे
वो चाँद याद आ गया फिर से मुझे
आज अमावस है
जानता हूँ
आसमान में नहीं निकलेगा चाँद आज
मगर तुम छत पर जरूर आओगी
मुझे क्या
मुझे तो अपने चाँद से मतलब है
रविवार, 12 सितंबर 2010
ख्वाब
तुम एक
ख्वाब हो
जिसे देखना
मेरी आदत है
खुली पलकों से
हर घडी
हर पल
हर क्षण
व्याकुल मन
तुम्हारे आने कि
प्रतीक्षा मैं
अपलक
देखता उन राहों को
जिसपर तुमने कभी
पैर भी न धरे
फिर भी इस आस पर
कि यह ख्वाब
आशाओं कि गलियों से होकर
तुम्हारे पलकों के
आँगन तक पहुचे
तो शायद
मेरी प्रतीक्षा में
न्यूनता आये !!
ख्वाब हो
जिसे देखना
मेरी आदत है
खुली पलकों से
हर घडी
हर पल
हर क्षण
व्याकुल मन
तुम्हारे आने कि
प्रतीक्षा मैं
अपलक
देखता उन राहों को
जिसपर तुमने कभी
पैर भी न धरे
फिर भी इस आस पर
कि यह ख्वाब
आशाओं कि गलियों से होकर
तुम्हारे पलकों के
आँगन तक पहुचे
तो शायद
मेरी प्रतीक्षा में
न्यूनता आये !!
सोमवार, 6 सितंबर 2010
तलाश एक बार फिर
वक़्त गुजरा
सदियाँ बीती
एक उम्र बसर हुई
आज न जाने क्यों
यादों की बंद खिड़की को खोल
उन झरोखों से झाकने का दिल हुआ
जिन्हें लम्हों के जाले ने धुंधला कर दिया
आँखों का खुद पर से भरोसा उठ गया
खिड़की के उस पार का
वो पल
अब भी वहीँ थमा हुआ था,
जिस वक़्त मेंने खिड़की बंद की थी
वो फेरीवाला आज भी
खट्टी मीठी गोलियाँ की आवाज लगता
गली के नुक्कड़ पर
ओझल हो जाता है आँखों से
में बेतहाशा भागता हूँ
उसकी और
और दुसरे गली के नुक्कड़ पर
उसे पकड़ ही लेता हूँ
चेहरे पर ख़ुशी
पल भर के लिए आती है
और पल में ही काफूर हो जाती है
जब मेरी इकलौती अठन्नी
जेब में नहीं मिलती
इस भागा-दौड़ी में
इकलौती अठन्नी
जाने कहाँ खो गई
ढूँढता हूँ बेसब्र होकर
सिर्फ अठन्नी खोई होती तो
शायद
मिल भी जाती
किस्मत भी कहीं ग़ुम हो चुकी थी
मगर तब तलक ढूंढता रहा
जब तक
उजालों ने मेरा साथ न छोड़ दिया
मगर खिड़की के इस पार
आज यही हालात थे मेरे
जीवन की भागा- दौड़ी में
कुछ रिश्ते
जाने किन पड़ाव पर खो गए
क्या उस अठन्नी जितनी कीमत भी नहीं
इन रिस्तो की
तो क्या इन्हे यूँ ही खोने दूं
एक बार फिर
तलाश करनी है
उस अठन्नी की
इन रिस्तो की शक्ल में
किस्मत कभी तो मेरे साथ होगी हीं !!!
रविवार, 5 सितंबर 2010
चंद लफ़्ज़ों में डूबी इश्क की दास्ताँ
चंद लफ़्ज़ों में डूबी इश्क की दास्ताँ
लिखने बैठूं तो पूरी स्याही ख़त्म हो जाएगी
वो उनके चेहरे पर मंद मंद सी मुस्कराहट
समेटने बैठूं तो पूरी जिंदगी ख़तम हो जाएगी
एक रोज़ यों ही मुलाक़ात हो गई राह में
अजनबी थे मगर कुछ तो था दोनों के एहसास में
आते जाते अक्सर मुलाकाते होने लगी
एक रोज़ यों ही मुलाक़ात हो गई राह में
अजनबी थे मगर कुछ तो था दोनों के एहसास में
आते जाते अक्सर मुलाकाते होने लगी
जान पहचान बढ़ी फिर बातें होने लगी
अब जब भी मिलते थे घंटो बात किया करते थे
एक दुसरे की आँखों में सपने पाला करते थे
न वक़्त के गुजरने का होश,
एक दुसरे की आँखों में सपने पाला करते थे
न वक़्त के गुजरने का होश,
न ही दिन के ढलने का ख्याल
दिल बस यही सोंचता
दिल बस यही सोंचता
की कब रात ढले और कब उनका दीदार हो
कब उनके लब खुलें
कब उनके लब खुलें
कब बारिश मुसलाधार हो
दोनों की नजदीकियाँ बढ़ने लगी
दोनों की नजदीकियाँ बढ़ने लगी
दोनों का खुमार बढ़ने लगा
कुछ पता नहीं चला कब दोनों में प्यार बढ़ने लगा
न ही भूख लगने की फ़िक्र
न ही किसी काम का होश
चंद मिनटों के लिए कुछ कहते
फिर घंटो तक खामोश
दिन जैसे बड़ी तेजी से पंख लगा उड़ता जा रहा था
और वो बस एक दुसरे की आँखों में अपना सपना सजाने लगे थे
खयालो में जीना, सपने सजाना
तस्सवूर में खोना, वो रूठना मानना
अल्ल्हड़ वो मस्ती, वो शोख जवानी
नदी का किनारा, वो झरने का पानी
न कुछ थी खबर, न होश कहीं था
बस वो थे वही थे कोई और नहीं था
मगर जाने कहाँ से वो आंधी थी आई
और वो बस एक दुसरे की आँखों में अपना सपना सजाने लगे थे
खयालो में जीना, सपने सजाना
तस्सवूर में खोना, वो रूठना मानना
अल्ल्हड़ वो मस्ती, वो शोख जवानी
नदी का किनारा, वो झरने का पानी
न कुछ थी खबर, न होश कहीं था
बस वो थे वही थे कोई और नहीं था
मगर जाने कहाँ से वो आंधी थी आई
कुछ ग़लतफहमी झोंको ने सपने बिखेरे
भरोसा था उनका वो टुटा वहीँ पर
जिंदगी के शुरू फिर वो गहरे अँधेरे
आज फिर से उनकी जिंदगी में एक सूनापन है
आज फिर उनकी तनहाइयों में वीरानापन है
वो बेबस हैं बैठे, और सोंचते ये रहते
वो बेबस हैं बैठे, और सोंचते ये रहते
क्या ? प्यार था उनका
जो ग़लतफहमी से टूटा
क्या ? भरोसा था उनका
ये बंधन जो छूटा
जाने अनजाने अपने ही मैं में
उन हसीं लम्हों को
पनपने से पहले ही दफना दिया उन्होंने !!
शुक्रवार, 3 सितंबर 2010
एक सूरत है
जिंदगी मेरी लाख खूबसूरत ही सही
एक सूरत है
जो सबसे हट कर है
हर सूरत में
एक सच्चाई है
कुछ हकीकत है
एक फ़साना है
दूसरी तरफ ज़माना है
एक विश्वास है
कुछ सपने हैं
निरंकुश अभिलाषाएं हैं
आशाएं हैं
दो जिंदगी है
एक धुप है, एक बादल है
एक आंधी है, एक आँचल है
एक गुंजन है, एक तन्हाई है
वो आलस है, ये अंगडाई है
एक दर्द है, एक मरहम है
एक दुसमन है, एक हमदम है
कुछ पल है, एक साथ हैं
कुछ दूर तक यही हालात हैं
बिखरते जज्बातों के साथ
जुदा अंदाज़ है
कुछ जरूरी है, कुछ जरूरत है
सबसे हट के एक सूरत है
हर सूरत में
एक सूरत है
जो सबसे हट कर है
हर सूरत में
एक सच्चाई है
कुछ हकीकत है
एक फ़साना है
दूसरी तरफ ज़माना है
एक विश्वास है
कुछ सपने हैं
निरंकुश अभिलाषाएं हैं
आशाएं हैं
दो जिंदगी है
एक धुप है, एक बादल है
एक आंधी है, एक आँचल है
एक गुंजन है, एक तन्हाई है
वो आलस है, ये अंगडाई है
एक दर्द है, एक मरहम है
एक दुसमन है, एक हमदम है
कुछ पल है, एक साथ हैं
कुछ दूर तक यही हालात हैं
बिखरते जज्बातों के साथ
जुदा अंदाज़ है
कुछ जरूरी है, कुछ जरूरत है
सबसे हट के एक सूरत है
हर सूरत में
गुरुवार, 2 सितंबर 2010
वो तो हर एक बात पर ग़ज़ल लिखता है
वो तो हर एक बात पर ग़ज़ल लिखता है
नादाँ है जो दरबे को महल लिखता है
लिखने को तो लिख दूंगा दास्तान-ऐ-मोहब्बत
मगर कौन है जो सच्चाई आज कल लिखता है
करता अगर वो बातें सागर के किनारे की
कुँओं की ख़ामोशी भी को हलचल लिखता है
होते हैं कुछ दीवाने दुनीयाँ मैं इनके जैसे
महबूब को वो अपने ताजमहल लिखता है
चुभ जाते हैं पैरों में जब कांटे गुलिस्ताँ के
वो दीवाना है कांटो को जो कमल लिखता है
वो वक़्त हुआ काफूर खुशियों का जब चलन था
अब आंसूओं के किस्से हर पल लिखता है
सारे जहाँ की रौनक बस्ती थी उसके घर में
वो बटवारे हुए घर को जंगल लिखता है
नादाँ है जो दरबे को महल लिखता है
लिखने को तो लिख दूंगा दास्तान-ऐ-मोहब्बत
मगर कौन है जो सच्चाई आज कल लिखता है
करता अगर वो बातें सागर के किनारे की
कुँओं की ख़ामोशी भी को हलचल लिखता है
होते हैं कुछ दीवाने दुनीयाँ मैं इनके जैसे
महबूब को वो अपने ताजमहल लिखता है
चुभ जाते हैं पैरों में जब कांटे गुलिस्ताँ के
वो दीवाना है कांटो को जो कमल लिखता है
वो वक़्त हुआ काफूर खुशियों का जब चलन था
अब आंसूओं के किस्से हर पल लिखता है
सारे जहाँ की रौनक बस्ती थी उसके घर में
वो बटवारे हुए घर को जंगल लिखता है
मित्र जो ढूंडन मैं चला
मित्र जो ढूंडन मैं चला ढूँढा सकल जहाँन
फेसबुक किया सर्च तो मिल गए कल्लू राम
मिल गए कल्लू राम स्क्रैप हमने कर डाला
यहाँ छुपे बैठे हो कर के तुम घोटाला
लूटा हमसे जितने रूपए हमें लौटाओ
नहीं करोगे ऐसा कसम हमारी खाओ
इंटरपोल पड़ी पीछे तो होंगे फड्डे
कपडे लत्ते संग बिकेंगे तुम्हारे चड्डे
फेसबुक किया सर्च तो मिल गए कल्लू राम
मिल गए कल्लू राम स्क्रैप हमने कर डाला
यहाँ छुपे बैठे हो कर के तुम घोटाला
लूटा हमसे जितने रूपए हमें लौटाओ
नहीं करोगे ऐसा कसम हमारी खाओ
इंटरपोल पड़ी पीछे तो होंगे फड्डे
कपडे लत्ते संग बिकेंगे तुम्हारे चड्डे
बुधवार, 1 सितंबर 2010
मैं तेरी मोहब्बत का इलज़ाम लिए फिरता हूँ
मैं तेरी मोहब्बत का इलज़ाम लिए फिरता हूँ
जिस शहर से भी गुजरूँ तेरा नाम लिए फिरता हूँ
तेरा जाना मेरे दिल को हर लम्हा रुलाता है
अश्क छुपाने की कोशिस नाकाम लिए फिरता हूँ
दरबे पर मुझसे मिलने तेरा नंगे पाँव आना
अब तक एहसासों की मैं वो शाम लिए फिरता हूँ
अच्छा है भूल जाऊं किस्मत मैं जब नहीं तू
तुझको भूलने के खातिर मैं जाम लिए फिरता हूँ
जीना भी क्या है जीना बिन तेरे भला मुझको
मैं अपने न होने का पैगाम लिए फिरता हूँ
जिस शहर से भी गुजरूँ तेरा नाम लिए फिरता हूँ
तेरा जाना मेरे दिल को हर लम्हा रुलाता है
अश्क छुपाने की कोशिस नाकाम लिए फिरता हूँ
दरबे पर मुझसे मिलने तेरा नंगे पाँव आना
अब तक एहसासों की मैं वो शाम लिए फिरता हूँ
अच्छा है भूल जाऊं किस्मत मैं जब नहीं तू
तुझको भूलने के खातिर मैं जाम लिए फिरता हूँ
जीना भी क्या है जीना बिन तेरे भला मुझको
मैं अपने न होने का पैगाम लिए फिरता हूँ
मंगलवार, 31 अगस्त 2010
आरती गूगल जी की
मेरे परम प्रिय मित्र है कुलभूषण त्रिपाठी ! इनके इन्टरनेट के ज्ञान को बढ़ाने में सबसे जयादा योगदान गूगल का रहा है ! जब भी कंप्यूटर को हाँथ लगते हैं ॐ गूगलाय नमह कहते हैं ! इनकी गूगल जी के प्रति इतनी श्रधा भक्ति देख कर तो ये आरती करने का मन जरूर करता है !
जय गूगल देवा
स्वामी जय गूगल देवा
सीर्चिंग करवाकर तुम
करत जगत सेवा
ॐ जय गूगल देवा
ज्ञानहीन दुःख हरता
तुम अन्तर्यामी
स्वामी तुम अन्तर्यामी
सीर्चिंग करने में तुम
सीर्चिंग करने में तुम
हो सबके स्वामी
ॐ जय गूगल देवा
जो ढूंढें मिल जावे
कलेश मिटे मन का
स्वामी कलेश मिटे मन का
दोष अज्ञान मिटावे
दोष अज्ञान मिटावे
सकलत जन जन का
ॐ जय गूगल देवा
तुम हो ज्ञान के सागर
तुम ब्लोगर कर्र्ता
स्वानी तुम ब्लोगर कर्र्ता
मैं ब्लोगर अज्ञानी
मैं कमेंट्स संग्रामी
क्रपा करो भरता
ॐ जय गूगल देवा
जीमेल लिमिट बढाओ
करो प्रीमियम रहित सेवा
स्वामी प्रीमियम रहित सेवा
ब्लॉग स्पोट ऑरकुट का
ब्लॉग स्पोट ऑरकुट का
चखते सब मेवा
ॐ जय गूगल देवा
गूगल जी की आरती
जो कोई नित गावे
बंधू जो कोई नित गावे
जो ढूंढें सब मन से
आई ऍम फिलिंग लक्की बटन से
फर्स्ट पेज पर मिल जावे
ॐ जय गूगल देवा
सोमवार, 30 अगस्त 2010
आज जब भी मैं तन्हा होता हूँ
आज जब भी मैं तन्हा होता हूँ
पुरानी बातों को
अक्सर याद करता हूँ
कुछ तस्वीरें सहेजी हैं
उन लम्हों की
अब तक
कुछ ख़त हैं
मुड़े-मुड़े से
एक सुखा सा फूल
जिसमें उस वक़्त की महक अब भी है
कुछ तोहफे, कुछ यादें
कुछ खिलौने, कुछ किताबें
कुछ आंसू, कुछ सदमें
कुछ मौसम, कुछ रातें
कितना मुस्किल है
इन्हें भुला पाना
और शायद
मैं भूलना भी नहीं चाहता
कुछ कडवाहटों की तस्वीर
अलग फ्रेम में लगाऊँगा
कुछ ख़ुशीयों की प्रदर्शनी सजाऊँगा
अक्सर ऐसा ही कुछ सोंचा करता हूँ
आज जब भी मैं तन्हा होता हूँ
पुरानी बातों को
अक्सर याद करता हूँ
पुरानी बातों को
अक्सर याद करता हूँ
कुछ तस्वीरें सहेजी हैं
उन लम्हों की
अब तक
कुछ ख़त हैं
मुड़े-मुड़े से
एक सुखा सा फूल
जिसमें उस वक़्त की महक अब भी है
कुछ तोहफे, कुछ यादें
कुछ खिलौने, कुछ किताबें
कुछ आंसू, कुछ सदमें
कुछ मौसम, कुछ रातें
कितना मुस्किल है
इन्हें भुला पाना
और शायद
मैं भूलना भी नहीं चाहता
कुछ कडवाहटों की तस्वीर
अलग फ्रेम में लगाऊँगा
कुछ ख़ुशीयों की प्रदर्शनी सजाऊँगा
अक्सर ऐसा ही कुछ सोंचा करता हूँ
आज जब भी मैं तन्हा होता हूँ
पुरानी बातों को
अक्सर याद करता हूँ
कितनी भी हो प्रिय प्रेमिका लेकिन बड़ी विकट होती है
कितनी भी हो प्रिय प्रेमिका लेकिन बड़ी विकट होती है
मंडराते खर्चे के बादल जब भी कभी निकट होती है
सुबह सवेरे फ़ोन करेंगे
फ़ोन तो क्या मिस कॉल करेंगे
कर भी लिया फ़ोन चलो माना
अंत में बिल तो हम ही भरेंगे
आठ घंटे कॉल के बाद भी फ़ोन नहीं डीस्कनेस्ट होती है
कितनी भी हो प्रिय प्रेमिका लेकिन बड़ी वीकट होती है
शोपिंग तो सिर्फ माल में होगी
लंच डिनर हर हाल में होगी
उतर गया जब भूत डाइटिंग का
डेट फिर माक डोनाल्ड में होगी
पिक्चर का खर्चा भी महंगा पाँच सौ की टिकट होती है
कितनी भी हो प्रिय प्रेमिका लेकिन बड़ी वीकट होती है
दस लिपिस्टिक बारह सेंडिल
रोज़ रोज़ नए नए स्कैंडल
फरमाइश अभी पूरी भी नहीं
तभी टूट गया पर्स का हेंडल
कितने भी कंजूस बनो तूम खर्चे की ये एक्सपर्ट होती हैं
कितनी भी हो प्रिय प्रेमिका लेकिन बड़ी वीकट होती है
झूठे प्यार का हैं ये नमूना
लेकिन प्रेमिका बिन जगसुना
प्यार बढे जब हद से समझो
लगने वाला है तब चूना
छोटी छोटी बातों पर भी सारा दिन खटपट होती है
कितनी भी हो प्रिय प्रेमिका लेकिन बड़ी वीकट होती है
जासूसी करें नए नए वो
मेसेज बॉक्स भी चेक करे वो
टोक- टोक के आदत बदली
खुद ही कहें फिर बदल गए हो
बहस करो इस बात पर जब तुम झूट मूठ की हर्ट होती है
कितनी भी हो प्रिय प्रेमिका लेकिन बड़ी वीकट होती है
मंडराते खर्चे के बादल जब भी कभी निकट होती है
सुबह सवेरे फ़ोन करेंगे
फ़ोन तो क्या मिस कॉल करेंगे
कर भी लिया फ़ोन चलो माना
अंत में बिल तो हम ही भरेंगे
आठ घंटे कॉल के बाद भी फ़ोन नहीं डीस्कनेस्ट होती है
कितनी भी हो प्रिय प्रेमिका लेकिन बड़ी वीकट होती है
शोपिंग तो सिर्फ माल में होगी
लंच डिनर हर हाल में होगी
उतर गया जब भूत डाइटिंग का
डेट फिर माक डोनाल्ड में होगी
पिक्चर का खर्चा भी महंगा पाँच सौ की टिकट होती है
कितनी भी हो प्रिय प्रेमिका लेकिन बड़ी वीकट होती है
दस लिपिस्टिक बारह सेंडिल
रोज़ रोज़ नए नए स्कैंडल
फरमाइश अभी पूरी भी नहीं
तभी टूट गया पर्स का हेंडल
कितने भी कंजूस बनो तूम खर्चे की ये एक्सपर्ट होती हैं
कितनी भी हो प्रिय प्रेमिका लेकिन बड़ी वीकट होती है
झूठे प्यार का हैं ये नमूना
लेकिन प्रेमिका बिन जगसुना
प्यार बढे जब हद से समझो
लगने वाला है तब चूना
छोटी छोटी बातों पर भी सारा दिन खटपट होती है
कितनी भी हो प्रिय प्रेमिका लेकिन बड़ी वीकट होती है
जासूसी करें नए नए वो
मेसेज बॉक्स भी चेक करे वो
टोक- टोक के आदत बदली
खुद ही कहें फिर बदल गए हो
बहस करो इस बात पर जब तुम झूट मूठ की हर्ट होती है
कितनी भी हो प्रिय प्रेमिका लेकिन बड़ी वीकट होती है
शनिवार, 28 अगस्त 2010
विरह वेदना
विरह वेदना क्या कहूँ तुमसे मुझको तुम अपना लो गंगा
खडी तुम्हारे सम्मुख मैं हूँ खुद में मुझे समा लो गंगा
राह देखती सांझ सवेरे
कब आएँगे प्रियतम मेरे
कैसे होंगे दूर देश में
चिंता रहती मुझको घेरे
कब तक रहूं में बाट जोगती अब तो उन्हे बुला दो गंगा
विरह वेदना क्या कहूँ तुमसे मुजको तुम अपना लो गंगा
जबसे पिया परदेश गये तुम
लगता है हमे भूल गये तुम
कोई भी संदेश ना आया
बिटिया भी रहती है गुमसुम
खुशियाँ रूठ गई इस घर से खुशियाँ फिर छलका दो गंगा
विरह वेदना क्या कहूँ तुमसे मुझको तुम अपना लो गंगा
बिंदिया काजल झुमके कंगन
सुना घर है सुना आँगन
सजने की अब चाह भी नही
सब कुछ सादा है बिन साजन
रूप देख कर आजाएँ वापस ऐसा मुझे बना दो गंगा
विरह वेदना क्या कहूँ तुमसे मुझको तुम अपना लो गंगा
खडी तुम्हारे सम्मुख मैं हूँ खुद में मुझे समा लो गंगा
राह देखती सांझ सवेरे
कब आएँगे प्रियतम मेरे
कैसे होंगे दूर देश में
चिंता रहती मुझको घेरे
कब तक रहूं में बाट जोगती अब तो उन्हे बुला दो गंगा
विरह वेदना क्या कहूँ तुमसे मुजको तुम अपना लो गंगा
जबसे पिया परदेश गये तुम
लगता है हमे भूल गये तुम
कोई भी संदेश ना आया
बिटिया भी रहती है गुमसुम
खुशियाँ रूठ गई इस घर से खुशियाँ फिर छलका दो गंगा
विरह वेदना क्या कहूँ तुमसे मुझको तुम अपना लो गंगा
बिंदिया काजल झुमके कंगन
सुना घर है सुना आँगन
सजने की अब चाह भी नही
सब कुछ सादा है बिन साजन
रूप देख कर आजाएँ वापस ऐसा मुझे बना दो गंगा
विरह वेदना क्या कहूँ तुमसे मुझको तुम अपना लो गंगा
गुरुवार, 26 अगस्त 2010
विवशता
४ जुलाई २००१
दिल्ली की तरफ वापसी का सफ़र शुरू हुआ ! कितनी ही आशाओ तथा अभिलाषाओं को संचित कर पुरे उल्लास से समय के व्यतीत होने का इंतजार कर रहा हूँ ! कल रात दिल्ली पहुच पाऊँगा, बड़ी विवशता से भरे हैं ये शब्द !
स्टेशन पर रहने वालो की जिंदगी कितनी संकीर्ण है, पग पग पर बेबसी तथा लाचारी मुह खोले अजगर के समान मिलती है ! पल भर गाड़ी बरौनी स्टेशन पर रुकी, मैं खिड़की में से चलायमान चिरजीवियों को देख रहा था शायद कुछ सोंच रहा था ! रह-रह कर चाय और पूरी के शब्दों की गर्जना कानो में पड़ती थी, तभी एक आवाज़ ने मेरी तन्द्रा भंग की
"बाबु जी ज़रा पैर हटाइये"
मैंने पैर ऊपर कर लिया वह झाड़ू लगता आगे निकल पड़ा अभी उसकी शक्ल पूरी तरह धुंधली भी नहीं हुई थी की वह वापस मेरे सामने हाँथ फैलाये खड़ा था इस इंतज़ार में की उसकी भूख को कुछ पल के लिए दबाया जा सके, जो पैसे मिलते उसे वह अपने परिवार पर खर्च करता ! इस वक़्त वह अकेला नहीं था उसका लगभग सात या आठ वर्ष का लड़का झाड़ू के भार को सहता अमुक मेरी तरफ देख रहा था, अन्यथा ही मैं उसके भार को महसूस कर रहा था ! मैंने जेब टटोला पाँच का नोट निकलते हुए मैंने उस लड़के की तरफ बढाया, उस व्यक्ति ने लड़के से कहा...
"जा ले ले बाबूजी ख़ुशी ख़ुशी दे रहें हैं "
पर लड़का न जाने किस संकोच से पिता की आढ में खड़ा हो गया, शायद उसका अहं यह मंज़ूर नहीं कर रहा था ! वह व्यक्ति नोट लेकर चला गया ! मैं वापस खिड़की में झाकने लगा ! दूर सीढियों के किनारे कुछ मैले कपडे का ढेर पड़ा था ! कुछ मैले से बर्तन थे, और फटा पुराना तकिया बड़ी सावधानी से लगा रखा था ! वही व्यक्ति वहां जाकर लेट गया उसकी पत्नी उसे पंखा झेलने लगी उसका लड़का वहीं उसी के साथ आढ लेकर सो गया ! उस व्यक्ति ने अपनी पत्नी को क्या जिंदगी दी की जिसके बाद पत्नी ने इतना त्याग किया इतनी सेवा की उसकी ! क्या उसके भाग्य में केवल स्टेशन से मिले भीख पर गुज़ारा करना बदा था ! वह चाहती तो इन सब को छोड़ कहीं उससे बेहतर जिंदगी गुज़ार सकती थी उसके पति ने उसे ऐसा क्या दिया था जिसके कारण उसने अपना सब कुछ समर्पित कर दिया ! क्या कोई मोह इतना सब करवा सकता है या फिर किसी मज़बूरी में इंसान इतना बेबस हो जाता है की उसे कोई और राह सूझती नहीं !
मेरी गाड़ी चल पड़ी ! में अभी भी अँधेरे में आँखे फाड़े उनकी तरफ देखने की कोशिस कर रहा हूँ ! दोनों सो रहे हैं और वो औरत जिसे उसके पति ने तंगहाली में जिंदगी गुज़ारने का जरिया दिया वह अभी भी उसे पंखा झेल रही है !
दिल्ली की तरफ वापसी का सफ़र शुरू हुआ ! कितनी ही आशाओ तथा अभिलाषाओं को संचित कर पुरे उल्लास से समय के व्यतीत होने का इंतजार कर रहा हूँ ! कल रात दिल्ली पहुच पाऊँगा, बड़ी विवशता से भरे हैं ये शब्द !
स्टेशन पर रहने वालो की जिंदगी कितनी संकीर्ण है, पग पग पर बेबसी तथा लाचारी मुह खोले अजगर के समान मिलती है ! पल भर गाड़ी बरौनी स्टेशन पर रुकी, मैं खिड़की में से चलायमान चिरजीवियों को देख रहा था शायद कुछ सोंच रहा था ! रह-रह कर चाय और पूरी के शब्दों की गर्जना कानो में पड़ती थी, तभी एक आवाज़ ने मेरी तन्द्रा भंग की
"बाबु जी ज़रा पैर हटाइये"मैंने मुड कर देखा तो एकाएक घृणा के भाव से पल भर को होकर गुजर गया ! एक बूढ़ा सा दिखने वाला ईन्सान जिसके पेट के ऊपर के हिस्से में हड्डियों का कंकाल बना था, पेट लगभग भीतर की और सटका पड़ा था, चेहरे पर गरीबी से तंग पड़ गई झूर्रियाँ आ गई थी, मांस तो सिर्फ हड्डियों को ढकने के लिए था, दोनों कंधे आपस में जुड़े जा रहे थे, मैली सी धोती पहने, हाँथ में झाड़ू लिए डिब्बा साफ़ करता बोला...
"बाबु जी ज़रा पैर हटाइये"
मैंने पैर ऊपर कर लिया वह झाड़ू लगता आगे निकल पड़ा अभी उसकी शक्ल पूरी तरह धुंधली भी नहीं हुई थी की वह वापस मेरे सामने हाँथ फैलाये खड़ा था इस इंतज़ार में की उसकी भूख को कुछ पल के लिए दबाया जा सके, जो पैसे मिलते उसे वह अपने परिवार पर खर्च करता ! इस वक़्त वह अकेला नहीं था उसका लगभग सात या आठ वर्ष का लड़का झाड़ू के भार को सहता अमुक मेरी तरफ देख रहा था, अन्यथा ही मैं उसके भार को महसूस कर रहा था ! मैंने जेब टटोला पाँच का नोट निकलते हुए मैंने उस लड़के की तरफ बढाया, उस व्यक्ति ने लड़के से कहा...
"जा ले ले बाबूजी ख़ुशी ख़ुशी दे रहें हैं "
पर लड़का न जाने किस संकोच से पिता की आढ में खड़ा हो गया, शायद उसका अहं यह मंज़ूर नहीं कर रहा था ! वह व्यक्ति नोट लेकर चला गया ! मैं वापस खिड़की में झाकने लगा ! दूर सीढियों के किनारे कुछ मैले कपडे का ढेर पड़ा था ! कुछ मैले से बर्तन थे, और फटा पुराना तकिया बड़ी सावधानी से लगा रखा था ! वही व्यक्ति वहां जाकर लेट गया उसकी पत्नी उसे पंखा झेलने लगी उसका लड़का वहीं उसी के साथ आढ लेकर सो गया ! उस व्यक्ति ने अपनी पत्नी को क्या जिंदगी दी की जिसके बाद पत्नी ने इतना त्याग किया इतनी सेवा की उसकी ! क्या उसके भाग्य में केवल स्टेशन से मिले भीख पर गुज़ारा करना बदा था ! वह चाहती तो इन सब को छोड़ कहीं उससे बेहतर जिंदगी गुज़ार सकती थी उसके पति ने उसे ऐसा क्या दिया था जिसके कारण उसने अपना सब कुछ समर्पित कर दिया ! क्या कोई मोह इतना सब करवा सकता है या फिर किसी मज़बूरी में इंसान इतना बेबस हो जाता है की उसे कोई और राह सूझती नहीं !
मेरी गाड़ी चल पड़ी ! में अभी भी अँधेरे में आँखे फाड़े उनकी तरफ देखने की कोशिस कर रहा हूँ ! दोनों सो रहे हैं और वो औरत जिसे उसके पति ने तंगहाली में जिंदगी गुज़ारने का जरिया दिया वह अभी भी उसे पंखा झेल रही है !
बुधवार, 25 अगस्त 2010
याद करना मेरी बातों को
ज़िन्दगी ले जायेगी तुम्हे दूर तक
थामे रखना तुम इन ऊंगलियों को
जब छूटने लगे भीङ में कभी
महसूस करना मेरी चाहत को
अनजानी ताकत में ऊंगलियाँ जकड जायेंगी
फिर हालात कि आँधी हो या ज़ज्बात का तुफान
तुम खीचे आओगे मेरी तरफ
और तब भी कोई डर सताने लगे
आँखो को मीच कर याद करना
उन लम्हो को जो कभी मेरे साथ गुजारे थे तुमने
याद करना मेरी बातों को
उन वादों को जो तुम्हे साक्षी मान कर किये थे मैने
तुम्हारा डर खत्म हो जायेगा
यकीनन तुम्से दूर चला जायेगा
और उस वक्त जो तुम्हारे सबसे करीब होगा
खोल कर आँखे देखना
वो मैं रहूँगा
सिर्फ मैं.......
थामे रखना तुम इन ऊंगलियों को
जब छूटने लगे भीङ में कभी
महसूस करना मेरी चाहत को
अनजानी ताकत में ऊंगलियाँ जकड जायेंगी
फिर हालात कि आँधी हो या ज़ज्बात का तुफान
तुम खीचे आओगे मेरी तरफ
और तब भी कोई डर सताने लगे
आँखो को मीच कर याद करना
उन लम्हो को जो कभी मेरे साथ गुजारे थे तुमने
याद करना मेरी बातों को
उन वादों को जो तुम्हे साक्षी मान कर किये थे मैने
तुम्हारा डर खत्म हो जायेगा
यकीनन तुम्से दूर चला जायेगा
और उस वक्त जो तुम्हारे सबसे करीब होगा
खोल कर आँखे देखना
वो मैं रहूँगा
सिर्फ मैं.......
मंगलवार, 24 अगस्त 2010
भोर की पहली किरण
भोर की पहली किरण क्यों रूठी रूठी सी लगी
चहचहाते पंक्षियों की शोर में था कुछ गिला
कुछ हवा भी मंद थी
मौसम भी था रूठा हुआ
मैंने सोंचा आज जाने सब को ये फिर क्या हुआ
क्यों भला मौसम के सिने मैं ये मीठा दर्द है
पंक्षियों की चह-चहाह्ट भी भला क्यों सर्द है
मैंने देखा
एक दरख्त
सर झुकाए था खड़ा
आँख में आंसू था उसके
और जिस्म सूखा पड़ा
वक़्त के किस्से थे लटके
और कई निसान चेहरे पर था
मैं खड़ा स्तब्ध था कुछ पल
फिर मैं उसके पास गया
मैंने पुछा बात क्या है
तुम खड़े हो कई वक़्त से
गुजरे पलों के जज़्बात क्या हैं
कुछ न बोला
चुप चाप वो सुनता रहा
कुछ तो कोशिस
की थी उसने बोलने की
बात फिर थम सी गई
आँख फिर नम सी गई
पास बैठे पेङ ने मुझसे कहा
आज अपना आखरी दिन है यहाँ
कल यहाँ एक सहर फिर बस जायेगा
पंक्षियां ढूंडेगी अपना घोंसला
पंथियों को भी ये सूरज
रोज़ फिर झूल्साऐगा
बात सच है आज कल
किसको यहाँ किसकी पड़ी
इंसानियत ख़तम हो चुकी
अब आ गई ऐसी घडी !!!!!
सोमवार, 9 अगस्त 2010
शराबी
एक शराबी,
अपनी धुन में जा रहा था !
और मन ही मन कुछ खिचड़ी पका रहा था !
काफी रात हो चुकी थी !
सारी दुनीयाँ सो चुकी थी !
तभी अचानक पत्थर से जा टकराया,
कुछ भुन्नाया कुछ बडबडाया ,
इतने मैं एक पुलिस वाला जाने कहाँ से चला आया !
बोला तुम लडखडा रहे हो,
और कुछ बडबडा रहे हो,
इतनी रात में शराब पीके उधम मचा रहे हो !
खुद का गली का गुंडा समझते हो !
दिखता है हाथ में क्या है,
पुलिस का डंडा है !
पुलिस खुद अपने आप में एक गुंडा है !
सभी गुंडे हमसे डरते हैं !
क्या आप इतनी रात मैं इस सड़क पर घूमने की कोई वजह बता सकते हैं !
शराबी ने हाथ जोड़ा,
बोला भाई साहब रहम खाइए थोडा,
अगर मुझे वजह मालूम होता ,
तो २ घंटे पहले अपनी बीवी के पास न चला गया होता !
अपनी धुन में जा रहा था !
और मन ही मन कुछ खिचड़ी पका रहा था !
काफी रात हो चुकी थी !
सारी दुनीयाँ सो चुकी थी !
तभी अचानक पत्थर से जा टकराया,
कुछ भुन्नाया कुछ बडबडाया ,
इतने मैं एक पुलिस वाला जाने कहाँ से चला आया !
बोला तुम लडखडा रहे हो,
और कुछ बडबडा रहे हो,
इतनी रात में शराब पीके उधम मचा रहे हो !
खुद का गली का गुंडा समझते हो !
दिखता है हाथ में क्या है,
पुलिस का डंडा है !
पुलिस खुद अपने आप में एक गुंडा है !
सभी गुंडे हमसे डरते हैं !
क्या आप इतनी रात मैं इस सड़क पर घूमने की कोई वजह बता सकते हैं !
शराबी ने हाथ जोड़ा,
बोला भाई साहब रहम खाइए थोडा,
अगर मुझे वजह मालूम होता ,
तो २ घंटे पहले अपनी बीवी के पास न चला गया होता !
शनिवार, 7 अगस्त 2010
जीवन दर्पण
प्रतिछण कंचन तन म्रदलोचन
दुर्लभ पावन मन मुख चन्दन
निशा सुन्दरी अतुलित अनुगामी
म्रगनयनी चंचल श्यामवर्णी
ज़ीवन संध्या रूप तुम्हारा
आतुर मन अकुलित अन्धियारा
अभिन्न प्राण वायु फैलाती
मंद मंद लहरो की बूंदे गिरी क्रोङ मे मोती बनकर
म्रगत्रष्णा आँचल नभ ऊपर
एक नवीन सबल करूणा तुम
आशावान निरंकुश चाहत
अनिशिचत काल वेदना वंदन
मै करता प्रति्छण तुम्हारा
अस्तित्वहीन दिशाहीन
अस्तित्वहीन दिशाहीन
निरर्थक
अब तक का मेरा जीवन
शून्य से भी बङा शून्य
सिर्फ कोशिश
और अल्पविराम
दाने दाने को
भूख मिटाने को
जीवन का ये महासंग्राम
यथाचित र्निलज्जतावश
मूक दर्शक सा विवश
देखता हूँ
इस धरा के लोग को
कुछ करूं पर क्या करूं मैं
कब तलक यूँ ही जियूँ
और
कब तलक यूँ ही मरूं मैं
कु्छ सवाल
करती हैं मुझसे निगाहें
आईने के सामने होता हूँ जब मैं
खो गया इस भीङ में
खो गई आवाज़ मेरी
ऐक आशा की किरन है दूर
कुछ खुशीयाँ लुटाती
राह तकता
ख़्वाब बुनता
बैठा हूँ मैं उन पलछिन का
निरर्थक
अब तक का मेरा जीवन
शून्य से भी बङा शून्य
सिर्फ कोशिश
और अल्पविराम
दाने दाने को
भूख मिटाने को
जीवन का ये महासंग्राम
यथाचित र्निलज्जतावश
मूक दर्शक सा विवश
देखता हूँ
इस धरा के लोग को
कुछ करूं पर क्या करूं मैं
कब तलक यूँ ही जियूँ
और
कब तलक यूँ ही मरूं मैं
कु्छ सवाल
करती हैं मुझसे निगाहें
आईने के सामने होता हूँ जब मैं
खो गया इस भीङ में
खो गई आवाज़ मेरी
ऐक आशा की किरन है दूर
कुछ खुशीयाँ लुटाती
राह तकता
ख़्वाब बुनता
बैठा हूँ मैं उन पलछिन का
बुधवार, 4 अगस्त 2010
हकीकत में यथार्त

ज़िन्दगी मुझे रोज़ ऐक नया फलसफा सिखाने लगी।
फिर आँखे क्यों हकीकत में यथार्त से डबडबाने लगी।
कुछ रंजोगम की तस्वीर मेरे अस्तित्व मे समा गये।
चन्द आँसू की बूंदे मेरे आँखो के साहिल तक आ गये।
भूख से बिलखते छोटे बच्चे को वो दूध पिलाने लगी।
भूखी बिटिया दूध न उतरने पर फिर से चिल्लाने लगी।
मेरे मन में कई सवाल उठने लगे थे इस मंज़र के।
चारो तरफ पहाङ से बनने लगे थे अस्थी पंज़र के।
अब हर तरफ भूख और बदहाली नज़र आने लगी।
आँखे फिर मेरी हकीकत में यथार्त से डबडबाने लगी।
धूल फ़ाकते आँसू पीते चन्द लोग थे ज़िंदा अभी।
वो दहशतगर्दी इतने पर भी न थे शर्मिन्दा कभी।
लाशो का अम्बार हर तरफ ख़ून पङा था राहों मे।
नन्ही सी बिटिया के टूकडे पडे थे माँ की बाहों में।
और चिता जलती थी धूँ-धूँ करके सबके आँगन में।
कहीं पिघलता काजल था और कहीं ख़ून था कंगन में।
थोडे से लालच के लिऐ नियती क्या क्या करवाने लगी।
आँखे फिर मेरी हकीकत में यथार्त से डबडबाने लगी।
फिर आँखे क्यों हकीकत में यथार्त से डबडबाने लगी।
कुछ रंजोगम की तस्वीर मेरे अस्तित्व मे समा गये।
चन्द आँसू की बूंदे मेरे आँखो के साहिल तक आ गये।
भूख से बिलखते छोटे बच्चे को वो दूध पिलाने लगी।
भूखी बिटिया दूध न उतरने पर फिर से चिल्लाने लगी।
मेरे मन में कई सवाल उठने लगे थे इस मंज़र के।
चारो तरफ पहाङ से बनने लगे थे अस्थी पंज़र के।
अब हर तरफ भूख और बदहाली नज़र आने लगी।
आँखे फिर मेरी हकीकत में यथार्त से डबडबाने लगी।
धूल फ़ाकते आँसू पीते चन्द लोग थे ज़िंदा अभी।
वो दहशतगर्दी इतने पर भी न थे शर्मिन्दा कभी।
लाशो का अम्बार हर तरफ ख़ून पङा था राहों मे।
नन्ही सी बिटिया के टूकडे पडे थे माँ की बाहों में।
और चिता जलती थी धूँ-धूँ करके सबके आँगन में।
कहीं पिघलता काजल था और कहीं ख़ून था कंगन में।
थोडे से लालच के लिऐ नियती क्या क्या करवाने लगी।
आँखे फिर मेरी हकीकत में यथार्त से डबडबाने लगी।
सोमवार, 2 अगस्त 2010
रेल यात्रा
हाल हीं की बात है (27 अप्रैल 1996), वो तारीख़ मेरे पैन्ट की जेब मे सुरक्षित पडी है। मैं हैद्राबाद से दिल्ली लौट रहा था।
जाते समय पिताजी ने किसी तरह धक्कम-धक्का कर के स्थान दिला दिया था, पर आते समय मेरी मदत को कोई आगे नहीं बढा। परेशानी ये थी कि जल्दबाज़ी में निज़ामूद्दीन एक्सपेस की टिकट मिली। किसी तरह से हम सवार हो हीं गये, सीट भी मिल गई थी, पर बाल-गोपालों ने उस पर भी कब्ज़ा कर लिया। पहले नाशता मिला फिर रात्रि भोजन के लिऐ पूछा गया कि हम शाकाहारी हैं अथवा मांसाहारी। खातीरदारी मे कुछ कमी नहीं थी, ये बात और थी कि रोटीयाँ थोडी जली और दाल में थोडा नमक अधिक था।
सूरज डूब चुका था, रात्रि का आगमन बडे जोरों से था। ज्यों-ज्यों रात जवान होती जा रही थी नर-नारी, बाल-बालाऐं, व्रद्ध-युवक अपने-अपने मुद्राओं में संकलित हो चुके थे, इन मुद्राओं को देख अजंता-एलोरा की मुद्रित मुर्तीयो का स्मरण हो उठता था। कोई तिरछी मुद्रा मे तो कोई द्रविण प्राणायाम कोइ पद्धमासन की मुद्रा मे था,तो कोई उलट पुलट आसन कर रहा था। हम पर निंद्रादेवी क्रपा नहीं कर रहीं थी। धन्यवाद है विभिन्न प्रकार के रागबद्ध खर्राटे लेने वालो तथा वालीयों का जो निःशुल्क मनोरंजन प्रदान कर रहे थे। किसी कोने से शेर के गुर्राहट की आवाज़ आ रही थी तो कहीं गुंजित भ्रमरों की। कोई राग मलहार मे व्यस्त था तो कोई राग व्रष्टि गर्जन छेड रहा था। संगीत प्रेमियों के लिऐ मनोहारी द्रष्य था। मैं भी अपने शरीर को तोडता हूँ, मोडता हूँ कल्पना करता हूँ कि मैं अपने खाट पर हीं सो रहा हूँ- किन्तु निंद्रादेवी तो अप्रसन्न हीं रही। पैर समान के बोझ सहने का अब तक आदी हो चुका था। बाथरुम जाने के लिऐ उठा तो देखा कि ऐक खाते पीते घर की महिला जो भगवान की क्रपा से शरीर से भी तनदुरुस्त थी नीचे रास्ते पर निशिचन्तता से गहरी नींद का आनन्द ले रही थी। उसके वजन का आभाष उसके शरीर को देख कर हीं हो पडता था। पिछे देखा तो बाल गोपाल की भीड फर्श पर ठाट से सो रही थी।
"अवश्यकता हीं अविष्कार की जननी है"लोगों को किनारे से आता जाता देख मैने भी साहस कर ही लिया। इस भरी मगरमच्छो के तलाब को पार करता कि ऐक महाशय का समान मेरे उपर आ गिरा और मुझ पर से उस सोई हुई महिला पर। मुझे तो ख़ास चोट नही लगी पर नींद का आनन्द लेती सम्भ्रान्त महिला का सर घूम गया। उसने आव देखा न ताव लगी चिल्लाने
"मार डाला रे सर फोड दिया कम्बख्त ने"इक्कठी फौज देख मेरे तो रोंगटे खडे हो गये, भला क्यों न होते उस महिला के रिस्तेदार कोई दारा सिंह तो कोई यूकोजुना तो कोई महाबली ख़ली था और मैं अकेला असहाय। किसी तरह से मामला रफा दफा होने पर जान में जान आई। ऍसा लगा जैसे मैने कोई किला फतह कर लिया हो। मै अपनी जगह पर जा बैठा और कुछ देर के बाद सूर्य देव प्रकट होते है। सूर्य किरण झरोख़े से प्रवेश करती हैं। सब लोग अपने सहज रुप मैं विराजमान हैं, चाय और इडली की स्वरांजली स्पष्ट सुनाई पडती है, बार-बार लगातार।
वक्त बेवक्त तुम मुझे

वक्त बेवक्त तुम मुझे यूँ आज़माया न करो,
आते हो तो रुक भी जाओ लौट के जाया न करो।
अब ये लम्हे बिन तुम्हारे काटे नहीं कटते कहीं,
अपने होने कि निशानी इन लम्हो को दे जाया करो।
बस तुम्हे मांगा ख़ुदा से सज़दा जब हमने किया,
हमको भी तुम मांग लो सज़दे मे जब सर झुकाया करो।
तुम न आओ दर पे मेरे शिकवा नहीं हमको मगर,
अपनी महफिल में कभी तुम हमको बुलवाया करो।
वक्त बे-वक्त तुम मुझे यूँ आज़माया न करो,
आते हो तो रुक भी जाओ लौट के जाया न करो।
आते हो तो रुक भी जाओ लौट के जाया न करो।
अब ये लम्हे बिन तुम्हारे काटे नहीं कटते कहीं,
अपने होने कि निशानी इन लम्हो को दे जाया करो।
बस तुम्हे मांगा ख़ुदा से सज़दा जब हमने किया,
हमको भी तुम मांग लो सज़दे मे जब सर झुकाया करो।
तुम न आओ दर पे मेरे शिकवा नहीं हमको मगर,
अपनी महफिल में कभी तुम हमको बुलवाया करो।
वक्त बे-वक्त तुम मुझे यूँ आज़माया न करो,
आते हो तो रुक भी जाओ लौट के जाया न करो।
हमने मांगी है दुआ तुम्हें पाने कि

हमने मांगी है दुआ तुम्हें पाने कि,
लग न जाये नज़र कहीं ज़माने कि।
मुद्दतो बाद उठाई है कलम,
लिखूं कौन सी गज़ल तुम्हे मनाने कि।
ऐक चेहरा है तेरा आँखो से हटता हि नहीं,
दाद देता है ज़माना इस निशाने कि।
डूबना चाहता हूँ आँखो में तेरी,
मैं रास्ता कैसे ढूंडू इस मैख़ाने कि।
जी नहीं सकता हूँ तेरे बगैर एक पल,
है इन्तज़ार मुझे अब तो मौत आने कि।
हमने मांगी है दुआ तुम्हें पाने कि,
लग न जाये नज़र कहीं ज़माने कि।
लग न जाये नज़र कहीं ज़माने कि।
मुद्दतो बाद उठाई है कलम,
लिखूं कौन सी गज़ल तुम्हे मनाने कि।
ऐक चेहरा है तेरा आँखो से हटता हि नहीं,
दाद देता है ज़माना इस निशाने कि।
डूबना चाहता हूँ आँखो में तेरी,
मैं रास्ता कैसे ढूंडू इस मैख़ाने कि।
जी नहीं सकता हूँ तेरे बगैर एक पल,
है इन्तज़ार मुझे अब तो मौत आने कि।
हमने मांगी है दुआ तुम्हें पाने कि,
लग न जाये नज़र कहीं ज़माने कि।
शुक्रवार, 30 जुलाई 2010
अधुरा मिलन

6 सितम्बर 1995
आज दूर से खङे होकर लहरों को गीनने कि कोशिश करता रहा।कई छोटी बङी बूंदे चहरे तक पहूंची हीं थी कि अचानक समय के ख्याल से चौंक पङा। घङी की लगातार घूमती सुई शाम के पाँच बजने का ईशारा कर रही थी। एक अजीब सी हलचल सीने में उठने लगी, समुन्दर के सारी लहरों को मैं अपने अंदर महशूस कर रहा था । लहरों का संगीत मीठा होते हुऐ भी शोर सा प्रतीत हो रहा था। अचानक एक अवाज ने धङकन को और तेज कर दिया, पल भर कि घबराहट एक अजीब से नशे का अनूभव करा रही थी।
"कब से इन्तजार कर रहे हो।"
ये शब्द जैसे मेरे कानो में पारे कि तरह पिघलते चले गये, मैंने बहुत कोशिश कि, की मैं अपने अंदर चल रहे भाव को चहरे पर न आने दूँ पर जैसे हि मैं उसकी तरफ मुडा मेरी धङकने बहुत तेज चलती ट्रेन कि तरह भागने लगी। जैसे तैसे अपने भीतर चल रहे कशमकश को नियंत्रित कर के मैने ज़वाब दिया...
"बस अभी थोङी देर हिं हुआ है"
लाख़ कोशिशो के बाद भी मेरे भीतर चल रही कशमकश को उसने मेरे चहरे पर पढ लीया
"सौरी तुम्हे इन्तजार करना पङा"
"चलो चल कर कहीं बैठते हैं"
हम थोडी दूर में रखी बेंच पर जा कर बैठ गये। अभी ख़ामोशी के कुछ पल हि बीते थे की उसने मुझसे सवाल किया
"कहीं चाय पीने चलें"
"हाँ क्यों नही चलो" मैने कहा..
अभी मैं पूरी तरह खङा भी नही हुआ था की उसका फोन बज उठा। वो फोन पर बात करने लगी और मैं उसे तब तक टकटकी लगाऐ देखता रहा जब तक उसने फोन नही रख दिया, और फोन के रखते हीं उसने कहा..
" देखो तुम बुरा मत मानना मुझे किसी ज़रुरी काम से जाना है, हम कल साथ में जरुर चाय के लीये जाऐंगे"
और वह ये कह कर चली गई । मैं उसे दूर तक जाता हुआ तब तक देखता रहा जब तक वो आँखो से ओझल नही हो गई। मैं फिर से लहरों को गीनने कि कोशिश करता रहा, और मन हि मन आने वाले कल कि तस्वीर उन उठती गिरती लहरों में बनाता रहा।
नया सवेरा

राह में भटकता फिर रहा अनजाने पथ पर
आशाओं के दीप जलाऐ
नतमस्तक है नया सवेरा
फूलों से मन अनुरंजित हो कर
ढूंढे वन वन चाह तुम्हारी
महक उठेगा सारा आलम
जब तुम होगे पास हमारे
नहीं सूझती राह पथिक को
अपने मन के राही हम हैं
मुङेगी जिधर पथ उस पर
चल देंगे हम आँखे मूंदे
और कभी जो खिले दिवाकर
किरणो से अपना दामन भर दे
और घटा सुधा बरसाऐ
नीले नीले अम्बर में फिर
त्रप्त भाव से तारें गायें
गुरुवार, 29 जुलाई 2010
दिवाली

मुझे याद है जब मै छोटा था। दिवाली का पूरा साल इन्तजा्र रहता था। दिवाली में जब बम पटाखे फोडते थे तो कइ पटाखे फुस्स हो जाते थे, मगर बचपन मन कब मानता है, उस फुस्स बम को उठाकर फिर से एक बार फोडने कि कोशिश करते,इसी कोशिश मे एक बार एक बम के अन्दर का कंकड मेरे पैर मे लग गया, एक बार तो चीख निकल गइ,फिर अगले हीं पल खुद के मनोभाव को नियंत्रीत किया की कोई हमारा मजा्क ना उडाऐ।
बस इसी भाव ने इस हास्य कविता को जन्म दिया।
हम समझ चुके थे की हमारा वक्त जल्द हीं बदलने वाला है।
जिसे हमने दिवाली समझी वो दिवाली नही दिवाला है।
हुआ ये कि हमारे पैर में चोट लग गई,
किसी बद्ददुआरी के दिल कि खोट लग गई।
कहीं से बम का पत्थर उडता हूआ आया,
हमारे दायें पैर कि कानी अंगुली से जा टकराया।
बस फिर क्या पाँच मिनट में अंगुली नीली हो गई,
दर्द से हमारी चड्डी गीली हो गई।
कुछ लोग हँस कर मेरा मजा्क उङाते थे।
हम भी उनके साथ हँस कर झेप जाते थे।
खैर चोट लग ही गया था तो क्या करते,
घर पहुँचे गिरते पडते।
अब हम समझ चुके थे की फुस्स हुऐ बम फोडने का परिणाम क्या होता है।
असावधानी से दिवाली मनाने का अंजाम क्या होता है।
उपर से तो मुस्कुरा रहे थे, अन्दर हीं अन्दर बहुत पीडा हो रही थी।
ओर ना जाने लक्ष्मी माता किसके घर में सो रही थीं,
लक्ष्मी जी आती तो उनके पैर पकड लेते।
लाकर दो हाँथ कि रस्सी उन्हें बन्धन में जकड लेते।
माँगते वरदान,
की हे लक्ष्मी माँ करो कल्याण।
हमें ऐसा बम दो,
जिसकी कीमत कम हो।
कीमत कम होगी तो अधिक बम खरीद पाऐंगे,
फुस्स हुऐ बम फिर कभी नहीं जलाऐंगे,
फिर हम नहीं तुमसे कुछ फरीयाद करेंगे,
उसके बाद हीं तुम्हें बन्धन से आजाद करेंगे।
जब हमारा घर धन से भर जाऐगा,
पडोस का लाला जल भून कर मर जाऐगा।
उदासी

एक कोने में बैठा सिसकता अचेतन सा पडा
गाल पर आंसू की बूंदे
अभी सूखी भी नही
आँखो में स्तब्धता
चेहरे पर उदासी
बिखरे बाल, और मन में कुछ सवाल
अपलक टकटकी लगाये
शुन्य निहारता निरन्तर।।
आँसु

बहाना केवल एक नही था।
आँसू था वो मेघ नही था।
गिरती रुकती नमक की बनी।
गालो पर आसार छोड्ती ।
अविराम बहती रहती वह।
करुण वेदना कहती रहती वह।
गिरे कभी जब मोती बनकर ।
फिर तकीया उसको अपनाता।
अंक में भरकर प्यार से उसको सहलाता।
दिखलाता फिर स्वपन सुहाने।
गीत सुनाता कमनीय कंठ से कुछ जाने पहचाने।
लम्हा

एक बार इक लम्हा गिरा था टूट कर।
मैने उसे लाख पकडने की कोशिश की,
वो लम्हा मूट्ठी में बंद सूखी रेत की तरह था।
जितनी जोर से मैं पकडता,
लम्हा उतनी तेजी से फिसलता।
लाख जतन के बाद भी मेरा हाथ खाली था।
कुछ आङी तिरक्षी लकीरें थी,
उन लकीरों के साथ लिखी थी मेरी नाकामी।
लम्हा जा चुका था।
सभी मेरी हालत से वाकिफ् हो चुके थे।
कुछ मेरे पीठ पीछे हँसते थे, मुस्कुराते थे,
कुछ मेरे सामने मेरी बेबसी का मजा्क उडा्ते थे।
मैं खामोश खडा् झेलता था।
मुझे तो झेलना हीं था।
बुधवार, 28 जुलाई 2010
कहानी
मेरे टूटे हूऐ दिल की इतनी सी कहानी है,
होंठो पर सिकवा है आंखो में पानी है।
इस दौर मैं न जाने क्यो लोग परेशां हैं,
क्यो समझे ना वो दिवाने थोडी सी जिन्दगानी है।
हमने जिधर भी देखा एक खौफ का मंजर है,
सब लोग हैं चूप फिर भी हम सब को हैरानी है।
किसके लिए यहाँ पर अब कौन है जो रोता है,
आँखो मे अब सभी के वो खून-ऐ-जवानी है।
पहचाने से अब चेहरे अनजाने से लगते है,
ये भीड् से अब मुझको ये कैसी परेशानी है।
मेरे देश का अब ये क्या हाल हो गया है,
चुटकि भर खाना है मुट्ठी भर पानी है।
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